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योगसार टीका। क्षयका उपाय करना योग्य है जिसने कर्मोके उदयकालमें दुःस्त्र य खेद व आकुलता न सहनी पड़े | जन्म, अग, मरणके साटोंमें न पड़ना पड़े । कर्मोंका संयोग एक क्षण के लिये भी आत्माके लिये गुणकारी नहीं है | ज्ञानी जीव इसलिये इस संसारके साथ मोहन लगा देते हैं । सर्व जीवोंकी सना भिन्न २ मानकर उनसे रागद्वेष नहीं करते हैं। समभावसे जगतके चारित्रको देखकर पूर्ण वैराग्यवान होकर आत्महितमें प्रवर्नते हैं। कर्मके कय पर कटिबद्ध होजाते हैं । आत्मयानकी अग्नि जलाकर कर्मका होम करते हैं । जब यह आत्मा शुद्ध व कर्मरहित होजायगा तब वह स्वाधीन होजाबगा | फिर कभी कोंक उदयकी पराधीनतामें नहीं रहना पड़ेगा | कर्मभूमिके मान
को आयुक्षयका नियम नहीं है. अकाल मरण होसक्ता है, ऐसा जानकर शीघ्रमे शीव आत्महिनमें लग जाना चाहिये । आपसे ही अपने आत्माकी शरणको परम शरण जानना चाहिये । समयसार में कहा है
जो अप्पणाद मायादि दुःहिदग्नुहिदे करेमि सत्तति । सो मूढो अगाणी गाणी पत्तोदु विवर्णदों ॥ २६५॥
भावार्थ-जो कोई सा अहंकार करे कि मैं परजीवोंको दुःस्सो व सुग्टी कर मक्ता है, वह सूर्य व अज्ञानी है । क्योंकि सर्व जीव अपने २ पाप पुण्य कमके उदयन इग्बी या मुस्त्री होते हैं । ज्ञानी जीव इस अहंकारम दूर रहते है।
बृहत सामायिक पाठमें कहा हैन वैद्या न पुत्रा न विप्रा न शका न कांता न माता न भृत्या न भूपः। यमालिंगितं रक्षितुं सति शत्ता विचित्यति कार्य निज कार्यमाथः ॥३३॥