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२६०] योगसार टोका।
__ कपायके अन्यको आत्म वीर्यकी कमीसे सहन नहीं कर सकता है इसलिये सर्व ही गृहस्थ योग्य काम करता है परन्तु उनमें आसक्त व मगन नहीं होता है | पूजापाट, परोपकार, दानादि कार्यको करके वह पुण्यका बम्प व खोसारिक इंद्रिय नरब नहीं चाहना है, यह तो कर्म रहित शाको उत्साही व उद्यम रहता है। यपि शुभ भागेका फल पुण्यका बंध है नथापि ज्ञानी उनको भी पापके समान बंध ही जानता है । ज्ञानी निर्वाणका पधिक है वह मात्र निश्चय रत्नत्रय स्वभावमई धर्मको या स्वानुभवको ही उपादय या ग्रहण योग्य मानता है । सयको भी पापके मरमान है। यह जानकर छुड़ाना चाहता है | समयसारकलशमें कहा है
संन्यस्तमिदं समस्लमपि समय नोक्षार्थना । संन्यात सति तत्र का किल कथा गुणस्य पापम्य वा ॥ सभ्यात्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्मयजैःकर्षप्रतिबद्ध मुद्धतास आनं स्वयं धावति ।।१०-४॥
भावार्य-मोक्षक अर्थीको सर्व ही कर्म त्यागना चाहिये । सत्र ही कर्मका लाग आवश्यक है, तब बह पुष्प पापकी क्या कथा है। ऐसे ज्ञानीक भीलर सम्यग्दान आदि अपने स्वभावको लिये हुए व कर्मरहित भाव में तन्मयप, शांतरससे पूर्ण मोक्षका कारण ऐसा आत्मज्ञान स्वयं विराजता है।
पु-कम सोने की बेडी है। जह लोहम्मिय णियड बुह तह सुष्णमिमय जाणि । जे सुह अमुह परिचयहि ते वि हवंति हु णाणि ॥७२।। अन्वयार्थ (बुह ) हे पंडित ! (तह लाम्पिय णियड