Book Title: Yogasara Tika
Author(s): Yogindudev, Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 296
________________ योगमार टीका। १२८७ अन्तरंग विमानी- हरमें दे पा पन्तुआम शिप ममताका लाग सो ब्रह्मचर्य तप है। धर्मभ्यानका एकांतमें अभ्यास करना मो ध्यान तप है । इन बारह प्रकार के नाम बनते हुग अपने आत्माको तपना सी ही निश्चय तप है। नियम चा यम रूपसे किन्ही भोजन पानादिका व किन्हीं वस्तुओंका त्याग करना व्यवहार प्रत्याख्यान हैं। अपने आत्माको सर्व परद्रव्यसे व परभावोंसे भिन्न अनुभव करना सो निश्श्य प्रन्याख्यान है। अभिप्राय यह है कि जब यह उ7योग अपने ही आत्माकं मुद्ध म्यम्पमें रमण करके खानुभयमें रहता है तब ही वास्तबमें रत्नत्रय स्वाय मोक्षमार्ग है | सप ही यमपि संयम है, झील है, तप है, प्रत्याख्यान है, अतएव आत्मस्थ रहना योग्य है। समयसारमें कहा है आदा खु माझ गाण आदा मे दसणे चरिते य । आदा पञ्चक्वाण आदा में संघरे जोगे || १८ ॥ भावार्थ-निश्वयम मेरे ज्ञान, दर्शनमें, चारित्रमें आत्मा ही है। जब मैं रनत्रयमें रमण करना ढूं नत्र आत्माहीके पास पहुंचना हूँ। स्याग भात्रमें रहना भी आत्मामें तिष्ठना है | आस्रव निगंध संघर.. भाबमें या एकाग्र योगाभ्यासमें भी आत्मा ही सन्मुख रहता है। पर भावों का त्याग ही मन्याम है। जो परयाणइ अप्प परु सो पर चयइ णिभंतु । सा सम्णासु मुणहि तुहु केवल-थाणि उत्तु ।। ८२॥ अन्वयार्थ-(जो अप्प फ परयाणइ ) जो आत्मा व परको पहचान लेना है ( सो णिभंतु प चयइ) यह बिना किसी प्रॉनिक

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