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२९६ ] यागसार टीका । है वही उसके सबै गुण है। (केवाल एम भणीत ) केवली भगवान ऐसा कहते हैं (तिहि कारणएं जोइ फुडु विमलु अप्पा मुणति) इस कारण योगीगण निश्चयसे निर्मल आत्माका अनुभव करते हैं।
भावार्थ- शुद्धात्माका जहाँ श्रद्भान है, ज्ञान है व उसीका भ्यान है अर्थात् जहां शुद्धात्माका अनुभव है, उपयोग पांच इंद्रिय व मनके विषयोंसे हट कर एक निर्मल आत्माहीकी तरफ नन्मय है वही यथार्थ मोक्षमार्ग है।
जब आत्माका ग्रहण होगया तब आत्माक सर्व गुणोंका ग्रहण होगया, क्योंकि द्रव्यके सर्व गुण उसके भीतर ही रहते हैं । मिश्रीको ग्रहण करनेसे मिश्रीके सर्व गुण ग्रहणमें आजाते हैं | आमको ग्रहण करनेसे आमके म्पादि सर्व गुण ग्रहणमें आजाते हैं । इसी तरह आत्माके ग्रहण होते हुये आत्माके सर्व गुण ग्रहणमें आजाते हैं।
एक एक गुणका ग्रहण करनेमे आत्माका एक एक अंश प्रणमें आयगा, सर्व आत्मा ग्रहणमें नहीं आयगा । परंतु अखण्ड व अभेद एक आत्माको ग्रहण करते हुए उसके भीतर व्याप कर रहे हुये सर्व गुण ग्रहणमें आजायंगे | इसलिये योगीगण निश्चल होकर एक निज आस्माको ही ध्याते हैं। आत्माका भ्यान करते हुए सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकनारित्र तीनों रत्नत्रय हैं । वहीं सम्यक तप है। आत्माकं भीतर रमण करनेवाला रागद्वेषके अभावम निश्चय अहिंसा व्रतका पालक है । सर्य असत पर पदार्थोके त्याग व सत्त निज पदार्थक यथार्थ ग्रहणसे आत्मामें ही निश्चय सत्य व्रत है |
मुद्गलादिकी गुण पर्यायकी स्थितिको ग्रहण न करके अपनी आत्मीक सम्पदामें सन्तोप रखनेसे आत्मामें ही निश्चय अचौर्य व्रत है । आत्माके सिवाय पर पदार्थमें न जाकर एकाग्र बने, पर ब्रह्मा स्वरूप आत्मामें ही विहार करनेमे आत्मामें ही निश्चय ब्रह्मचर्य व्रत