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योगसार टीका।
[२९१ श्यबहार रत्नत्रय उपादान के प्रकाशके लिये बाहरी निमित्त है | कायकी मिद्धि, अपादान और विभिन्न दोनों कारणौक होने पर होती है। मालीन मुवर्ण आग व मसालीका निमित्त पाकर स्वयं साफ होता है | मलीन बन्न मसाल व पानीका निमित्त पाकर स्त्रयं उजला होना है। चावल आग पानीका निमिन पाकर स्वयं भात बन जाता है। चनेके दाने चक्रीका निमिन पाकर स्वयं चूर्ण होजाते हैं । पानीका निमित्त पाकर तिलोमसे तेल निकलना है।
मिट्टी स्वयं बड़ा रूप हो जाती है, कुम्हारका चाक आदि निमित्त है | काम्प स्वयं उपादान कारण हो जाता है । जवनक कार्ग हो तबतक वह निमित्त सहायक होता है फिर निमित्त बिलकुल अलग रहे आता है । आत्मा अपनी शुद्धिग या उन्नत्तिमें आप ही उपादान कारण है, निमिन शरीरादि अनेक बाहरी किया है। यदि उनस शारीर वनवृपभनाराच संहनन, उत्तम आर्य क्षेत्र, चतुर्थ दृग्यमा सुग्त्रमा काल, त्र साधुका बाहरी निगंध भेप व चारित्र न हो तो मोक्षकं लिये आत्माका भाव विशुद्धिको नहीं पाता है | अनपत्र व्यवहार रत्नत्रयके आलम्बनने निश्चय रत्नत्रयका आराधन कार्यकारी है । यह अपना आत्मा तन्य म्वभावमे परम शुद्ध है, ज्ञानाना है, अनंत वाय व अनंत सुस्त्रका सागर है, परम वीतराग है, सर्व अन्य द्रव्योंकी सत्तासे रहित है।
स्वयं ज्ञानचेतनामय है, परम निराकुल है। यही परमात्मा देव है ऐसा दृढ़ श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। इसकी प्राप्तिका उपाय अन्तरंग निमित्त अनंतानुबंधी कपाय व मिथ्यात्वका उपशम है व बाहरी उपाय देव शास्त्र गुरुका श्रद्धान व जीवादि सात तत्त्रोका पक्का श्रद्धाल है तथा आत्मा व परका भेद विज्ञान पूर्वक विचार है । मन वचन कायकी सर्व क्रिया निमिस है। अन्तरंग व बहिरंगा