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योगसार टीका। [२८२ भावार्थ-~-आत्माके स्वभावमें रमणता होने पर ही सर्व ही मोक्षक साधन निश्चयनयसे प्राप्त हो जाने हैं । व्यवहारनयस देवशास्त्र गुरुका तथा जीवादि सात तत्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । निश्चयम वह आत्माका ही निज गुण है । जहां श्रद्धा व रुचि सहित आत्मामें थिरतारे तिष्ठना होता है वहीं भाव निक्षेपरूप यथार्थ परिणमनशील. सम्यग्दर्शन है । व्यवहार में आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, निश्चयमे ज्ञानमें अपने अरमाका शुद्ध स्वभाव झलकना ही सम्यग्ज्ञान है |
व्यवहार में साधु या श्रावकका महाव्रत या अणुव्रतरूप आचरण सम्यकचारित्र है। निश्श्यम वीतराग भाव ही सम्यक्चारित्र है । जहाँ आत्मामें स्थिरता है वहां निश्चय सम्यकचारित्र है । व्यवहारमें पांच इन्द्रिय व मन निरोध इन्द्रिय संयम व पृथ्त्रीकायादि छः प्रकार प्राणियोंकी रक्षा प्राणिसंग्रम है । निश्चयम अपने ही शुद्ध स्वभाव में अपनेको संयमरूप रम्बना, बाहर कहीं भी रागदेप न करना आत्माका धर्म संयम है।
व्यवहारसे मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनाको न प्रकार कामविकारक) टालकर शील पालना ब्रह्मचर्य है ! निश्चयसे ब्रह्मस्वरूप आत्मामें ही चलना निश्चय ब्रह्मचर्य है, सो आन्मारूप ही है। व्यवहारसे बारहप्रकार तप पालना तप है। निश्चयसे अरमाके शुद्ध स्वरूपमें तपना तप है । आत्मीक भावमें प्रकाश पाने के लिये ये तप सहाई हैं । तपस्वीको, योगीको उचित है कि इन्द्रियदमन व मन, वचन, कायकी शुद्धिके लिये उपवास करता रहे, भोजन ऊनोदर करे, मात्रासे कम ले, जिससे ध्यान स्वाभ्याम्पमें प्रमाद न आवे । निद्राको विजय कर व शरीर निरोगी रहे :
भिक्षा लेने के लिये कोई नियम ऐसा ले जिससे गृहस्थको कोई आरंभ विशेष न करना पड़े व अपने परिणामोंकी जांच हो कि नियम