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२८४] योगसार टीका ।
अभेदनयसे एक अखण्ड आत्माको ध्यावे तब स्वानुभवका लाभ होगा । यही आत्मदर्शन है व यही सुस्वशांति प्रदायक भाव है | यही आत्मसमाधि है, यही निश्चय रत्नत्रयकी एकता है । मुमुक्षु जीवको निश्चिन्त होकर परम प्रमभावसे अपने आत्माका ही आराधन करना चाहिये । बृहत सामायिक पाठमें कहा हैन्यावृत्त्येन्द्रियगोचरोरुगहने लोलं. चरि चिरं
दुबारे हृदयोदर स्थिरतरं कृत्वा मनोमर्कट । ध्यानं ध्यायति मुक्तये श्रममनेनिर्मुक्तभोगगृहो
नोपायन बिना कृता हि विधयः सिद्वि लमंते ध्रुव ॥५४॥ भावार्थ-दुबार मन रूपी बन्दा चिरकालसे लोलुपी होकर पांच इंद्रियोंके महान वनमें रमण कररहा था, उसकी वहमि रोककर अपने हृदय के भीतर स्थिर मन बांधकर रम्य । तथा सर्व भोगांकी अभिलापा याग करके, परिश्रम करके केवल मोक्षके ही हेतु आत्माका भ्यान करे । क्योंकि उपायक विना कार्यकी सिद्धि नहीं होती । आयम निश्चय काम निद्ध होता है।
आत्मरमणमें तप त्यागादि सब कुछ है । अध्या दसणु णाणु मुणि अप्पा चग्ण वियाणि । अप्पा संजमु मील तर अशा पञ्चवाणि ॥ ८१॥
अन्वयार्थ -(अप्पा देसणु णाणु मुणि) आत्माको ही सम्यग्दर्शन और सम्यम्झान जानो (अप्पा चरणु वियाणि) आत्माको ही मम्यक्चारित्र समझी (अप्पा संजमु सील तउ) आत्मा ही संयम है, शील है, नप है, ( अप्पा पञ्चवरवाणि) आरमा ही प्रत्याख्यान या त्याग है ।