________________
योगसार टीका। [२६३ पयोगों वर्तते हैं, परन्तु पुण्यकी इच्छा नहीं रखते हैं। वस्तु स्वभावसे पुण्यबंध होता है | इसलिये चंथकारक शुभोपयोगसे विरक्त रहकर शीघ्र ही शुद्धोपयोग पानेका यन किया करते हैं।
प्रवचनसारमें कुन्दकुन्द महाराज कहते हैंजदि संति हि पुष्णाणि य परिणाम समुखवाणि विविहाणि । अणयति विसयताहं जीवाणं देवदंताणं ।। ७४ ।। ते पुण उदिगण तण्हा दुहिदाताहाहि बिसयसोरखाणि । इच्छंति अणुवंति य आमरणं दु:वसंतसा ।। ७५ ।।
भावार्थ-शुभोपयोगसे बांधे हुए नानाप्रकार पुण्यक्रम देवपर्यन्त शरीरोंको विशेष सामग्रीका संयोग मिलाकर विषयोंकी तृष्णा पैदा कर देते हैं । वे देवादि तृष्णाके कारपा दुःखी होते हैं | तृष्णाके रोगले पीड़ित होकर विषयसुख चाहते हैं । मरणपर्यंत भोगते रहते हैं तौभी दुःखोंसे संतापित रहते हैं, तृष्णा नहीं मिटती है।
भावनिग्रंथ ही मोक्षमार्गी है। जइया मणु णिग्गथु जिय तइया तुहुँ णिग्गथु । जइया तुहुँ णिग्गंथु जिय तो लगभइ सिवर्षथु ॥७३॥
अन्वयार्थ (जिय जइया मणु णिग्गंथु) हे जीव : जय तेरा मन निबंध है ( तइया तुहं णिगंथु) तब तु सद्या निम्रय है (जिय जइया तुहु णिग्गंथु ) हे जीव : जब तू निर्ग्रन्थ है (तो सिवपंथु लम्भइ । जो तूने मोक्षमार्ग पालिया।
भावार्थ-निग्रंथ पद ही साधुपद है । संयमका साधन साधु ही कर सकता है, क्योंकि वही आरम्भ परिग्रहको त्यागकर अहिंसादि