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योगसार टीका ।
| २७१ दृष्टि उपयोगको जोड़े तब अपने को ही जिन भगवान समझे व ऐसी ही भावना करे | भावना करते करते जब उपयोग उपयोगवान आत्मामें घुल जायगा, एकमेक होजायगा, लवणकी डली जैसे पानीमें घुल 'जाती है वैसे उपयोग रम जायगा, व्याता ध्येयका भेद मिट जायगा व स्वानुभव होजायगा तब द्रव्य दृष्टिका विचार भी बंद हो जायगा, अर्हत भाव में ठहर जायगा, यही मोक्षका उपाय है ।
प्रवचनसार में कहा है—
जो जादि अरहंत दत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खन्यु जादि तम्स लयं ॥ ८० ॥ जीवो ववगदमोहो वो तमप्पणी सम्मं ।
जहदि जदि रागदो से सो अप्पाणं हदि सुद्धं ॥ ८१ ॥ भावार्थ - जो कोई अरहंत भगवानको द्रव्य, गुण, पर्यायोंके द्वारा यथार्थ जानता है वही अपने आत्माको पहचानता है, उसीका दर्शन मोड़ या मिथ्यात्व भाव दूर होजाता है। ऐसा मोहरहित सम्यग्दृष्टी जीव भलेप्रकार अपने आत्माके तत्वको पाकर यदि राग द्वेष छोड़कर वीतराग होजाता है तो वह अपने आत्माको शुद्ध कर लेता है ।
आत्माके गुणोंकी भावना करे ।
वे तेच पंच विवह सत्तहँ छह चाहँ । चउगुण-सहियउ सो मुणह एयइँ लक्खण जाइँ ॥ ७६ ॥
अन्वयार्थ -- (सो) उस अपने आत्माको (वे ते च पंच विहं सत्त छह पंचाह चउगुण सहियच गुणह ) दो, तीन, चार, पांच, नव, सात, छः, पांच और चार गुण सहित जाने (जांड