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योगसार टीका ।
क्रियाको आत्माका कर्तव्य नहीं जानता है। भावना त्यागकी रखता है । २१ कषायोंकी शक्ति घटानेके लिये यह देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय व सामायिकके द्वारा अपने आत्माक्रे शुद्ध ज्ञानदर्शन. स्वभावका मनन करता है । अत्मानुभवका अभ्यास करता है । इस आत्मीक पुरुषार्थ जब अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय नहीं रहता है, केवल १७ ऋपायका उदय रहता है तब वह श्रावकके. fast स्वीकार करके आवक ही होजाता है ।
जैसे २ प्रत्याख्यान कपायका उदय आत्मानुभव के अभ्यास कम होता जाता है वह ग्यारह प्रतिमा रूपसे चारित्र बढ़ाता गढ़ना है । जब प्रत्याख्यान कषायका उदय भी नहीं रहना है तब केवल तेरह कपायोंके उदयको रखकर वस्त्रादि परियह त्याग कर साधु होजाता है । साधुपदमें ध्यानके अभ्यास कपायोंका चल कम करता है । उपशमी पर शुक्लभ्यानके द्वारा १३ कमायको दवाकर वीतरागी होजाता है। क्षपकश्रेणी में इनका क्षय करके वीतरागी होजाता है। तब वह मोक्षगामी क्षपकश्रेणीपर ही चटकर श्रीण-मोद गुणस्थानमें आकर शेप तीन घातीय कर्मोंका अय करके केवली भगवान अरहंत परमात्मा होजाता है । ज्ञानदर्शन गुणको भावना करते करते अनंत ज्ञान व अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुखको प्रकट कर देना है। इस तरह राग द्वेष त्याग करके ज्ञान दर्शन गुणवाले आत्माको प्राप्त करे ।
समयसार कलशमें कहा है
अध्यास्य शुद्धजयमुद्धतबोधचिमै काममेव कल्यन्ति सदैव ये ते । -रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारं ॥ ८ ॥५