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योगसार टीका ।
भावार्थ - आत्माको मलीन करनेवाले चार कषाय हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ चारित्र मोहनीय कर्मकी प्रकृतियां हैं जब इनका उदय होता है तब कोभादि भाव प्रगट होते हैं। वे कषाय आत्माके स्वभाव नहीं हैं | आत्मा के तत्वको इनसे रहित परम वीतरागी जाने
साधक स्वयं भी इन कमायके होनेका निमित्त यचावे, सदा ही शांत भावसे व सम भावने रहनेका उद्यम करे । व्यवहार में गौण भाव raja |
निश्चयनयसे जगतको देखनेका अधिक अभ्यास करे | वस्तु स्वरूपको विचार करके किसी अपराधीपर कोध न करके उसको सुधारनेका प्रयत्न करे | जैसे रोगीपर दया रखनी चाहिये वैसे अपराधीपर दया रखनी चाहिये ।
उसको ठीक मार्गपर चलानेका उग्रम करना चाहिये । क्रोध शीघ्रतास विना विचारे निर्चलपर ही आ जाता है । यदि कुछ समय विचार को दिया जावे तो कारण विचार देनेपर निर्बलपर
या आ जायेगी। क्षणभंगुर गृहलक्ष्मी आदिका विद्या व पका मान कदापि न करना चाहिये । फलके भारमं वृक्ष जैसे झुके रहने वैसे ही ज्ञानीको सम्पत्ति विद्या व तप बल होनेपर विशेष कोमल य विनयवान होना चाहिये | परको ठगने का भाव मनमे अलग करके मायाचार नहीं बनना चाहिये । सरल सीधा सत्य व्यवहार ज्ञानीको रखना चाहिये । लोभ मनको मैला रखता है, सन्तोस उसे जीतना चाहिये ।
आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये चार संज्ञाएं हैं। लोभ कपाय, भय नोकषाय, वेद नोकषाय ये संज्ञाएं होती है। आत्माका स्वभाव इनसे बाहर है, आत्माका स्वभाव परम निस्पृह है, ज्ञानीकी सन्तोषक द्वारा आहार संज्ञाको, निर्भयता के द्वारा भयको, ब्रह्मचर्यके द्वारा