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यांगसार टीका।
[२७१ समान निर्मल है। परम निरंजन, निर्विकार, परम ज्ञानी, परम शांत व परमानंदमय है | इसतरह वारवार अपने आत्माको भ्यावे । तब परिणामोंकी विरता होनेपर स्वयं आत्मानुभव प्रगट होगा, यही मोक्षका मार्ग है ।
आत्मानुभवों समय अतीन्द्रिय आनंदका म्बाद आयगा । इनी बाद में लोग आत्मानुभव गरम का शालद्ध होकर अरहन परमात्मा होकर अनंतसुखका भोगनेवाला होनाता है।
समयसारकलशमें कहा हैसर्वतः स्वरमनिर्भरभावं चतये स्वयमहं म्बमिकं । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोह; शुद्ध चिद्धनमहानिधिरमि ।।३...?
भावार्थ-मैं अपनेमे ही अपने आत्मीक शुद्ध रससे पूर्ण चेतनप्रभुका अनुभव करता हूं । मैं केवल शुद्ध ज्ञानका भंडार हूँ । मेग मोह कर्मसे बिलकुल कोई सम्बन्ध नहीं है ।
चारको त्याग चार गुणसहित ध्यावे। उ कसाय सण्णा रहिउ चउ गुण सहियउ वृत्तु । मा अप्या मुणि जीव तुहुँ जिम पर होहि पवितु ।। ७९ ।।
अन्वयार्थ-(चउ कसाय) चार क्रोधादि कपाय (सगणा) चार संज्ञा आहार भत्र मैथुन परिग्रह ( रहित ) रहित ( च गुण साहियउ अप्पा बुत्तु ) व दर्शन ज्ञान मुख वीर्य चार गुण सहित आत्मा कहा गया है ( जीव तुहूं सो मुणि ) हे जीव तु . उसका ऐसा मनन कर (जिम पर पवित्न होहि) जिसरंस तू परम पवित्र हो जाये।