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योगसार टीका! [२६१ तह मुण्णम्मिय जाणे ) जैसे लोहकी बेड़ी है जैसे ही सुवर्णकी वेड़ी है ऐसा समझ (जे मुह असुह परिचयहि ) जो शुभ अशुभ दोनों प्रकारके सारोंका म्याग करते हैं .ते विह णाणि वंति। वे की निश्य करके ज्ञानी है।
भावार्थ-पुण्य पापकर्म दोनों ही बंधन हैं, पुण्यको सोनेकी तथा पापको लोहे की छेड़ी कह सक्त हैं। दोनों ही कर्म संसार वासमें गेकनेवाले हैं । जब दोनों बेड़ियोंका संगठन होता है तब ही यह जीव स्वाधीन मोक्षसको पाना है । अतएव ज्ञानीको उचित है कि पुण्य पाप दोनों ही प्रकार बंधनोंको हेय समझे । मंद कपायक भावोंको हाभोपयोग व दीव कपायक भावोंको अशुभोपयोग कहते हैं । दोनों हीसे वन्य होता है| चार घानीय कर्म या बंध दोनों उपयोजन होता है।
अधातीयमें मानारंदनीयादि पुण्य प्रकृतियाँका बंध शुग भावोंसे व अवातावदनीयादि पाप प्रतिबोका बंश्व अशुभ भावोग्न होता है। मंद कपास आयुके सिवाय सर्व ही कामे स्थिति थोड़ी व नीर कपास स्थिति अधिक पड़ती है। आयुकममें नरककी स्थिनि तीन कपायले अधिक व मंदकषायसे कम पड़ती है । लब तियं च, मनुष्य, देव तीन आधुकी स्थिति मंदपायगे अधिक च तीन ऋपायम्म कम पड़ती है । किन्तु अनुभाग पापकर्नामें अर्थान चार बातीय व असातावेदनीयादि पारकर्मों में तीन कपाबसे अधिक पड़ता है, मंदकषायसे कम पड़ता है किन्तु सातावदनीयादि मुश्यक्रम में तीन कपायसे कम ब मन्द कायसे अनुभाग अधिक पड़ता है । पापकर्म फलमे नरक, नियंच या क्षुद्र मानव भवमि दुःस्त्र भोगना पड़ता है । पुण्यके फलसे देवगतिमें या उत्तम मानव भनमें पाच इन्द्रियोंके भोगकी प्रचुर सामका लाभ होता है।