________________
योगसार टीका। [२५१ प्यारा है। उसका पूर्ण लाभ व अनंतकाल के लिये निरन्तर लाभ तब ही होता है जब यह जीत्र संसारमे मुक्त होकर सिद्ध परमात्मा होजाबे, पुण्य पापसे रहित होजाये । इसलिये ज्ञानी जीव जुण्य पाप दोषों को बंधनकी अपेक्षा समान जानते हैं ।
दोनोंके बन्धका कारण कपायकी मलीनता है, मन्द करायसे पुण्य 'च तीन ऋत्रायस् पाप अन्धता है, कषाय आत्मा चारित्र गुणके घातक हैं। दोनोंका स्वभाव पुद्गल है | सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र, पुण्य कर्म व असासाबेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, नीच गोत्र तथा चार घातीय कग पापकर्म हैं । दोनोली वर्गणार हैं, आत्माके चेतन स्वभावसे भिन्न हैं।
पुण्यका अनुभव मुखरूप है, पापका अनुभव दुःम्बरमा है । ये दोनों ही अनुभव आत्माके स्वाभाविक अनुमत्रमे विरुद्ध है व शुद्धास्मामें रमणके घातक हैं। दोनों ही अनुभव कपायकी कलुषताके स्वाद हैं । पुण्य व पाप दोनों ही पुनः बंधके कारण हैं। दोनों में तन्मय होनेसे कर्मका बन्ध होता है । यह बंध मोक्षमागमें विरोधी है, ऐसा जानकर ज्ञानी जीव पापके समान पुण्यको भी भला के अहण योग्य नहीं मानते हैं, वे शुभ भावोंसे व अशुभ भात्रा दोनोंसे विरक्त रहते हैं । कर्म क्षयकारक व आत्मानन्ददायक एक २ शुद्धापयोगको ही मान्य करते हैं।
सम्यग्दृष्टी अविरती होनेपर भी य गृहाथमें धर्म, अर्थ, काम, 'पुरुषार्थ साधनमें अनुरक्त रहनेपर भी सर ही शुभ अशुभ कार्योंको चारित्रमोहनीयके उद्यके आधीन होकर करता है, परंतु इस सर्वे कामको अपना आत्मीक हित नहीं मानता है । वह तो यही मानता है कि निरंतर आत्मीक आगमें रमण करूं, धीतरागनाकाहीका सेवन 'करू, सिद्धोंसे ही प्रेम करूं ।