________________
२६२ ]
योगसार टीका ।
संसारी प्राणी के भाव निमित्ताधीन प्रायः होते हैं। विषयभोगकी अधिक सामग्री पाकर उनके भोगनेकी तीव्र लालसा होती है। अज्ञानी प्राणी विषयभोग में लीन हो जाते हैं । विषयभोगकी तृष्णा त्रिषयभोगने और बढ़ जाती है तब विषयभोगों में अधिक मगन हो जाते हैं तब आत्माका दिन भूल जाते हैं । विषयासक्त मानव अनेक प्रकार के अन्याय से धनका सञ्चय करते हैं व इच्छित भोगोंकी प्राप्तिका यत्र करते हैं, नहीं मिलनेपर दुःखी होते हैं, मिलनेपर भोग करके तृष्णा अधिक बढ़ा लेते हैं, वियोग होनेपर शोक करते हैं ।
पुण्यके फलसे प्राप्त विषयभोगोंक भीतर फँस जानेसे विषयी मानव नरक निगोदादिमें चले जाते हैं | देवगतिवाले भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी व दूसरे स्वर्ग पर्यतके देव मरके एकेन्द्रिय पृथ्वी, जल, वनस्पति कायमें जन्म ले लेते हैं । बारहवें स्वर्ग तकके देव पंचेन्द्रिय पशुतक हो जाते हैं। नौवेथिक तकके देव मानव जन्मते हैं, विषयभोगोंकी आकुलता सो तृष्णा रोग है, उस रोगले पीड़ित प्राणी घबड़ाकर विषयभोगों में तृष्णा के शमनके लिये जाता है। भोग करके क्षणिक तृप्ति उस समय पाकर फिर और अधिक तृष्णाको बढ़ा लेता है । दुःखोंके साधनोंमें जो आकुलता होती है वैसी ही आकुलता तृष्णारूपी रोगके बढ़ने में होती है।
इस जीवने वारवार देवगति तथा मनुष्यगतिके पांच इंद्रियोंके विषयभोग किये हैं, परंतु तृष्णाकी दाह शमन न हो सकी। इसलिये ज्ञानीजन विषयसुखको हेय समझते हैं, तब विषयसुखके कारण पुण्यकर्मको है जानते हैं, तब पुण्यत्रन्धके कारण शुभोपयोगको भी हेय समझते हैं । मात्र शुद्धोपयोग की भावना करते हैं जिससे तीर्यचमें भी अतीन्द्रिय सुख होता है, कर्मका क्षय होता है व मोक्षमार्ग तय होता है। शुद्धोपयोगमें ठहरनेकी शक्ति नहीं होनेपर ज्ञानी जीव शुभी