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यांगनाशका। वाले भव्य जीव शीन ही भवसागरसे पार होजाते हैं ।
बृहत सामायिकपाटमें कहा है-- कांतान शरीरजप्रभृतयों ये सबंधारयात्मनो । भिन्नाः कर्मभवा: समीरगनला भायावहिभाविनः !! तैः संपत्तिमिहात्मनो गतधियो जानन्ति ये शम्मंदा । स्वं संकल्पयसेन तं विदधते नाकीशलक्ष्मी: स्फुटं ।। ८५ ।।
भावार्थ-यह घी, धन, पुत्रादि सर्वथा ही अपनी आत्मास भिन्न हैं, बाहरी रहनेवाले हैं, कमक उदयन प्राप्त हैं, युवकके समान उनका संयोग चंचल है। जो मूढ़ बुद्धि इनके संयोगसे सुखदाई संपत्ति होना समझते हैं वे ऐसे ही मूर्ख हैं जो अपने मनके संकल्पसे ही स्वर्गकी लक्ष्मीको प्राप्त करले।
संसारमें कोई अपना नहीं है। ईद-फणिंद-परिंदय वि जीवहं सरणु ण होति । असरणु जाणिव मुणि-धवला अप्पा अप्प मुणति ॥६८॥
अन्वयार्थ ( इंद-फर्णिद-णारय वि जीव सरणु ण होति) इन्द्र, धरपेन्द्र, व चक्रवर्ती कोई भी संसारी प्राणियोंके रक्षक नहीं हो सकते ( मुणि-धरला असरणु जाणिवि ) उत्तम-मुनि अपनेको अशरण जानकर ( अप्पा अषण मुणान) अपने आत्मा द्वारा आत्माका अनुभव करते हैं।
भावार्थ-संसारी प्राणी कोके उदयको भोगते हैं तब कोई उस उद्यको मिदा नहीं सकता । जब आयु कर्म क्षय होता है मरण होजाता है, किसी इन्द्र, धरणन्द्र क नरेंद्रों, मंत्रज्ञाता, विद्वानमें, तपस्वी में, परममित्रमें, माता-पितामें, पुत्र-पुत्रीमें, अग व
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