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योगसार टीका |
[ २५ १ ज्योतिषों में शक्ति नहीं है कि मरणसे एक क्षण भी रोक सके। स्वयं सर्व प्रकार भोगोको भांगनेवाले चक्रवर्तीको सी शरीर त्यागना पड़ता है | इन्द्र व देवो भी देवगतिक भोग त्यागकर मध्यलोक में जन्म लेना पड़ता है । इसीतरह जब पाप कर्मोंका तीन उदय आजाता हैं तब रोग, शोक हरएकको सहना पड़ता है तब भी कोई दुःखको बेटा नहीं सकता है। प्राणीको अकेले ही भोगना पड़ता है, माताको पुत्रपर बहुत प्रेम होता है व पुत्रके रोगी होनेपर वह मोहसे दुःख मानती है, परंतु ऐसी शक्ति मातामें नहीं है जो पुत्र रोगकी वेदनाको पुत्रको न भोगने दे, आप भोग वे ।
कोई किसी दुःख या सुखको या साता असातावेदनीय कर्मको नहीं दे सका। कर्मकि फल भोगने में सब जीवोंको स्वयं ही वर्तना उड़ता है, कोई भी रक्षा नहीं कर सक्ता । जो कर्म अभी सत्ता में हैं उदय में नहीं आए हैं उन कमौंको स्थिति व अनुभाग घटाकर क्षय किया जा सका है या पापकर्मों को निचैल व पुण्यकर्मको सत्रल किया जा सक्ता है । उसमें कारण उसी जीवके परिणाम हैं। जो कोई अपने शुद्धात्माकी भावना भावे व अरहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधुकी भक्ति करें या कृतपापका प्रतिक्रमण करें, गुरुके पास आलोचना करें तो निर्मल भावोंसे कर्मोकी अवस्थाको बदला जा सक्ता है, उनका क्षय किया जा सक्ता है ।
इसलिये यह जीव आप ही अपना रक्षक है। दूसरा जीव दूसरे जीवका रक्षक नहीं है ऐसा जानकर बानी मुनिराज अपने शुद्धात्माका ही अनुभव करते हैं । जब आत्मव्यानमें उपयोग नहीं लगता है तब स्वाध्याय, भक्ति, मननमें व परोपदेशमें व वैयावृत्य में व त्वचा उपयोगको जोड़ते हैं ।
सम्यष्टी ज्ञानको अशरण भावनाका विचार करके कर्मों के