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योगसार टीका। ___अन्वयार्थ-( जड इक्कुलउ जाइसिहि ) यदि द अकेला ही जायगा ( नो परभाव चाहि ) तो राग द्वेष मोहादि परभावोंको त्याग दे । (णाणमा अप्पा झायाहे ) ज्ञानमय आत्माका न्यान कर (लह सिवन्मुक्खल हदि)ती शीन ही मोक्षका सुख पाएगा।
भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि है शिष्य : यदि तुझको यह निश्चय होगवा है कि त एक दिन मरेगा तब तुझे परलोक में अकेला ही जाना पड़ेगा । कोई भी चेनन या अचेतन पदार्थ तेरे साथ नहीं जांयगे। जिनमे तू राग करता है वे सत्र सह ही अट मांगो तय तेरा उनसे राग करना वृथा है । मे क्षणभंगुर पदागि राग करना शोकका व दुःखका कारण है।
इसलिये तु अब मा कामकर जिसने तुझे थिरता प्राप्त हो। अविनाशी मोक्षका अनुपम सुग्न प्रान हो ! संसार में जन्म मरण करना नहीं पड़े । इष्ट वियोग अनिष्ट गोषक कार सहना न पड़े। पराधीन होकर पापकर्माका फल न भुगचना पड़, जिसम त निरंतर सुखी रहे । कभी भी बाधा न पाये व पु स्वाधीख होजावे. परम कृतार्थ होजावे, तृन्गाकी ज्याला शांत होजाये, कनायकी आग बुझ जाये । परम शांतिका प्रवाह निरन्तर बहने लगे, सर्व लोकालोकका ज्ञाता दृष्क्षा होजावे । निरन्तर आत्माके ही उपचन रनण करे, की भी खेद न प्राप्त करें | तुझे योग्य है कि मानो महले ही यब करले। मानवदेहसे ही शिवपद मिल सकता है । देव, नारकी: पशु देहसे कभी भी नहीं प्राप्त होसक्ता है।
इस अवसरको खोना उचित नहीं है ! वह उपाय यही है कि जो जो द्रव्य, क्षेत्र, काल. भार अपना नहीं है उसे पर समझकर उन सबसे राग उठाले । केवल अपने ही ज्ञान स्वरूपी आत्माले द्रव्य क्षेत्र काल भावको अपना जानकर उसमें ही परम रूचिवान होजा,