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योगसार टीका। [२४७ विज्ञानका मनन करे। जैस पानीस कीच भिन्न है चेसे मेरे आत्मामे आठ कर्म, रागादि भावकर्म, शरीरादि नोको भिन्न है।
बारबार अभ्यासके बलसे सम्यग्दर्शनका प्रकाश होगा | तब अनादिका मायका:-गा, ज. होमः, शिपिका मार्ग हाथमें आगया, फिर क्या चाहिये । जन्म २ के संकटोंको मिटानेत्राला ग्रह आत्मज्ञान है । यद्यपि यह दुर्लभ है तथापि इसीके लिये पुरुषार्थ करना व इसे लाभ कर लेना ही मानवजन्मका सार है।
समयसारजीमें कहा हैसुद परिचिदाणुभृदा, सव्यस्स वि कामभोयबंधकहा । एयत्तस्कलम्भो, णधार ण सुलभो बिभत्तम्स ॥ ४ ॥
भावार्थ-सर्व संसारी प्राणियोंको काम भोग संबन्धी कथा । बहुत सुगम है क्योंकि अनंतबार सुनी है, अनंतवार उनकी पहचान की है, अनंतवार विषयोंका अनुभव किया है। दुलभ है तो एक परभाव रहित व अपने एकस्वरूपमें तन्मय ऐस शुद्धात्माकी बात है। इसीका लाभ होना कठिन है । सारसमुच्चय में कहा है
ज्ञानं नाम महारत्नं यन्न प्राप्तं कदाचन । संसारे श्रमता भीमे नानादुःम्वविधायिनि ॥ १३ ॥ अधुना तत्त्वया प्राप्तं सम्यग्दर्शनसंयुतम् । प्रमाई मा पुनः कार्कीविषयास्वादलारसः ॥ १४ ॥
भावाथ-~-इस भयानक व नानाप्रकारके दुःखोंसे भरे हुए संसारमें मरते हुए जीवने आत्मज्ञान रूपी महान् रस्नकी कहीं नहीं पाया | अब तूने इस उत्तम सम्यग्दर्शनको पालिया है, तब प्रमाद न करे, विषयोंके स्वादमें लोभी होकर इस अपूर्व तत्त्रको खोन बैठे। सम्हालकर रक्षाकर सुस्त्री बने ।