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२४६] योगसार टीका। जिनको अवसर मिलता है वे भी व्यवहारमें इतने फंसे होते हैं कि व्यवहार धर्म अन्धोंको पढ़ते सुनते हैं; अनेक बई विद्वान पंडित होजाते हैं; न्याय, व्याकरण, काव्य, पुराण, वैद्यक, ज्योनिमकी य पाप पुण्य बंधक क्रियाओंकी विशेप चचर्चा करते हैं । अध्यात्म ग्रन्थोंपर सुक्ष्म दृष्टि देकर नहीं पढ़ते हैं न विचारते हैं।
निश्चयनयस अपना ही आत्मा आराध्य देव हैं रोका हद विश्वास नहीं कर पाते हैं । अनेक पंडित आत्मज्ञान विना केवल विद्याके धबलों , क्रियाकांडके पोपणमें ही जन्म गंवा देने है-- जिनके मियानका व अनंतानुबन्धी कपाको भर, डोउ! . दुत, उनही विद्वानोंको तत्वरुचि होती है। अध्यात्मज्ञान विद्वान बहुत थोड़े मिलते हैं । जबतक ऐसे उपदेशक न मिल तबतक श्रोताओंको आत्मजामका लाभ होना कठिन है।
यदि कोंपर आत्मज्ञानी पंडित होते भी हैं तो आत्माके हितकी माद रुचि रखनेवाले प्रोताओंकी कमी रहती हैं। जिन मीनर संसारके मोहजालस कुछ उदासी होती है वे ही आत्मीक नस्त्रकी. बातोको न्यानसे सुनते हैं. सुनके धारण करते हैं, विचार करते हैं। जिनके भीतर गाद रुचि होती है, वे ही निरन्तर आत्मीक तत्वका चितवन करते हैं । आत्मव्यानी बहुत थोड़े हैं, इनमें भी निर्विकल्प समाधि पानेवाले, स्वानुभव करनेत्राले दुर्लभ हैं।
आत्मज्ञान अमूल्य पदार्थ है, मानव जन्म पाकर इसके लाभका प्रयत्न करना जारी है । जिसने आत्मज्ञानकी रुचि पाई उसने ही निर्माण जानेका मार्ग पालिया। यही सम्यग्दर्शन है। जब बुद्धि मूक्ष्म विचार करनेकी हो तब प्रमाद छोड़कर पहले व्यवहारनयसे जीवाजीत्र तत्वोंके कहनेवाले शास्त्र पढे । बंध व मोक्षक व्यवहार साधनोको जान लेवे फिर निश्चयनयकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रका मनन करके अपने आत्माको द्रव्यरूपमे शुद्ध जाने ! भेद