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योगसार टीका। त्याग करके कुछ बा व पात्र रखले, वर छोड़कर बाहर एकांतमें रहे, संतोषसे दूसरेक यहां निमंत्रणसे भोजन करे, आप स्वयं नहीं बनाये।
(१५) अनुमात त्यान-लौकिक काम में सम्मति देनेका. त्याग करे, भोजनक समन निमन्त्रणमे जावे।
(११) उदित्याग प्रतिमा--अपन लिये किये गए भोजनको न लेवे, भिक्षा भोजन करें । शुल्क होकर एक लंगोट, एक. खंष्ट चादर स्क्वे. पीछी, कमंडल रकावे । ऐलक होकर कंवल एक लंगोटी पीछी कमल स्काले ।
फिर सा हो वस्त्र रहित होजाये, पांच महावत अहिंसादि पूर्ण पाले व पांच समिलि पाटे ! ( १) इयर्या-देखकर चले, (२) भाषा--शुद्ध वाणी बोल(३) रस त्याग-द्ध भोजन लेवे, (४) आदाननिशेषण-देन कर उठाये घरे, (५) व्युत्सर्ग-मल, मूत्र. देखकर करें, मन वचन कायको शश रहताबीन गुलि पाले । यह तेरा प्रकार, साधुका व्यवहार बारिश हैं। इस प्रकार श्रावक या साधुके व्यवहार चारित्रको पालते हुए स्वानुभवका अभ्यास बढ़ावे. तो वह धीरे २ आत्मानंदको पाना हुआ मोक्षकी तरफ बढ़ता चला जाता है । आत्मामें ही जो तिष्ठते हैं में ही सिद्ध मुखको सदा पाते. हैं। पुरुषार्थसिद्धपायमें कहा हैं:
चारिक भवति कला समात्तसावद्ययोगविहरणात् । सकलकापायांवमुक्तं विशदमुद्रासीनमा मरूपं तत् ॥ ३९॥ हिंसातोऽनृतवचनाल्तेषादब्रह्मतः परिग्रहतः । कास्न्यैकदेशविरतश्चापिनं जायते द्विविधम् ॥ ४० ॥ भावार्थ-सर्व पापबन्धको कारण मन, वचन, कायकी प्रवृ