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योगसार टीका। स्थित्यैच कायपरितापहरं निमित्त
मित्यात्मवान्विषयसौख्यपराङ्मुखोऽमृत् ॥८२॥ भावार्थ-तृष्णाकी ज्वालाएं जलनी रहती हैं, इच्छित इंद्रिथोंके भागोंके भोगनेपर भी उनकी शांत्ति नहीं होती है, किंतु ज्वालाएं बढ़ती ही जाती हैं । कुछ शरीरका ताप भोगनेसे उस समय मिटता है, परन्तु शीघ्र ही बढ़ जाता है | यो समझकर आत्मज्ञानी स्वामी कुन्धुनाथ भगवान इंद्रियोंके बिषयसुत्रमे विरक्त होगये ।
आत्मानुशासनमें कहा हैशारीरमयि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि । नास्त्यहो दुष्करं नृणां विपाद्वाञ्छन्ति जीवितम् ॥१९६॥
भावार्थ-मनुप्य सदा ही शरीरको पोपते हैं ध विषयभोगोंको भोगते रहते हैं। इससे बढ़कर और स्रोटा कृत्य क्या होगा | वे विप पीकर जीवन चाहते हैं। भत्रभवमें कष्ट पाएंगे।
आत्मप्रेमी ही निर्वाणका पात्र है। जेहट मणु विस्य रमइ तिसु अइ अप्प मुणेइ । जोइड भवाइ हो जोइपहु लहु णिव्वाणु लहेइ ॥५०॥
अन्वयार्थ-(जाइउ मणु) योगी महात्मा कहते हैं (हो जोइरहु ) हे योगीजनो ! (मणु जेहउ विसयह रमइ) मन जैसा विषयोंमें रमण करता है (जब तिस्तु अप्प मुणेइ) यदि वैसा यह मन आत्माके ज्ञानमें रमण करे तो (लह णिव्वाणु लहेइ) शीघ्र ही निर्माणको प्राप्त करले ।
भावार्थ-योगेन्द्राचार्य योगीगणोंको कहते हैं कि मनको गाढ़ भावसे अपने आस्माके भीतर रमाना चाहिये । तब वीतरागवाके