________________
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
----
---
---
३०२
थागसार टीका। उद्यम किया करता है । वृद्धावस्था में असमर्थ होकर घोर शारीरिक व मानसिक वेदना सहता है । इवियोग व अनिष्ट संयोगके घोर कष्ट सहने पड़ते हैं । रातदिन चिंताओंकी चितामें जला करता है । नारकीके समान यह मानव इस शरीरमें सदा क्षोभिन व दुःखी रहता है।
नरकमें विषयभोगकी सामग्री नहीं है। मानव गतिमें विषयोंकी सामग्री मिल जाती है | उनके भोगके क्षणिक सुत्रके लोभमें यह अज्ञानी मानव नरकके समान इस शरीरमें रहना पसन्द करता है तथा ऐसा छम नहीं करता है जो फिर यह शरीर ही प्राप्त न हो । परोपकारी आचार्य शिक्षा देते हैं कि इन नरकवालके समान शरीरनिवासमें मोह करना मुर्खता है।
इस नरदेहसे ऐसा साधन होसकता है जो फिर कहीं भी देहका धारण न हो । निर्वाणरूपी पदका लाभ जिस संयम ब ध्यानसे होला है वह संयम व व्यान नरदेहहीमें होसकता है । नारकी जीव संयमका पालन नहीं कर सकते । इसलिये उचित है कि इस शरीरका मोह त्यागा जावे।
इस शरीरको चाकरकी भांति योग्य भोजनपान देकर अपने काममें सहायक होमेयोग्य बनाए रखना चाहिये और इसके द्वारा धर्मका साधन करना चाहिये । निज आत्माको पहचानना चाहिये । उसके मूल स्वभावका श्रद्धान करके उसीका निरन्तर मनन करना चाहिये, तब यह कुछ ही कालमें उसी भवमें या कई भवोंमें मुक्त होजायगा, शरीर रहित शुद्ध होजायगा। फिर कभी शरीरका संयोग. नहीं होगा। स्वयंभूस्तोत्रमें कहा है--
अजङ्गमं जंगमनेययन्त्रं यथा तथा जीवधृतं शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च स्नेहो पृथात्रेति हितं त्वमान्यः ॥३२
--
A