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योगसार टीका। [२१५ कालमें एक अबाधित नित्य परम निर्मल चेतन द्रव्य हूं । इसतरह मनन करके जो अपने आत्मारूपी रत्नको ग्रहण करके उसीके स्वामीपर्नेमें संतोपी होजाता है, वहीं आत्माका दर्शन करता हुआ निर्वाणका साहनाता समयताका कद हैं....
नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान्कर्तृभोक्तादिभावान् । दूरीभूतः प्रतिपदमय बन्धमोक्षप्रक्लप्तेः ॥ शुद्धः शुद्धस्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चिष्टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः॥१-१०॥
भावार्थ-ज्ञानका समूह यह आत्मा अपनी स्थिर प्रकाशमान प्रतिमाको धरता हुआ सदा उदय रहता है | यह परम शुद्ध है, शुद्ध आत्मीक रससे पूर्ण व पवित्र व निश्चल तेजका धारी है । कर्ताभोक्ता आदिक भावोंको पूर्णपने अपने भीतरसे दूर किये हुए है । यह अपनी हरएक परिणतिमें एकाकार हैं, बंध तथा मोक्षकी कल्पनासे दूर है । समयसारमें कहा है--
सुद्धं तु वियाणतो मुद्धमेवप्पथं लहदि जीबो । जाणतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पय लहदि ।। १७६ ॥
भावार्थ-जो जीव शुद्ध आत्माका अनुभव करता है वह स्वयं शुद्धारमा होजाता है व जो अपनेको अशुद्ध जानता है वह अशुद्ध आत्मारूप ही रहता है। आत्मानुभवी ही संसारसे मुक्त होता है। जे णवि-मण्णहि जीव फुड जे णवि जीउ मुणति । ते जिण-णाहहँ उत्तिया उ संसारमुचंति ।। ५६॥ अन्वयार्थ (जे फुड जीव णवि-अण्णाह) जो स्पष्ट रूपसे