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योगसार दीका ।
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जाता है तब प्रत्याख्यान कषायका उदय नहीं रहता है। तब संयमी होकर पूर्ण विरक्त होजाता है। परिग्रहके प्रपंचसे हटकर निज आत्माके स्वादका इतना प्रेमी होजाता है कि एक अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आत्मीक रमणसे विमुख नहीं रहता है। निरन्तर आत्मीक मननमें लगा रहता है। __वास्तव में आत्मानुभव ही मोक्षमाग है । सम्यक्ती बाहरी चारित्रको, भेषफो, वर्तनको मोक्षमार्ग नहीं जानता है, एक ही निश्चय आत्माके अनुभवको मोक्षमार्ग जानता है । अनुभवके समय वृत्ति आत्मामय होजाती है तब बहुत कमौकी निर्जरा होती है। मोहनीय कर्मकी शक्ति घटती है, अधिकबल बढ़ता है। आत्मानुभव ही धर्मभ्यान है, आत्मनुभव ही शुक्लध्यान है, इसीके प्रतापले चारों धातीयकर्म क्षय होजाने हैं तब आत्मा परमात्मा होजाता है । अपने आत्माको द्रव्यरूप परके संयोग रहित परम वीतराग, परमानंदमय, परमझानी, परमदर्शी, अमूर्तीक, अविनाशी, निर्विकार, निरंजन, अनंतबली, परम निश्चल, एकाकी, परम शुद्ध, परमात्मा रूप निरन्तर, देखना चाहिये । जगतकी आत्माओंको भी द्रव्यदृष्टिसे ऐसा ही देखना चाहिये तब समभावका प्रकाश होगा।
भावनाके समय शुद्ध निश्चयनयसे आपको व पर आत्माओंको सत्रको परम शुद्ध रूप मनन करना चाहिये, फिर अपने में ही एकान होकर आत्मीक रसका पान करना चाहिये । रातदिन आत्मीक रसका रसीला होजाना चाहिये । निज आत्मामें ही रहना ज्ञानीका घर है । बिना आत्माकी शिलापर जिस ज्ञानीका आसन है, निज आत्मीक तत्व ही ज्ञानीका वस्त्र है, निजात्मीक रस ही ज्ञानीका भोजनपान है। निजास्मीक शय्या ही ज्ञानीकी शच्या है। जिस शानीको सर्व कर्मजनित पद अपद भासते हैं वही ज्ञानी निजपदका प्रेमी होकर निज स्वभावमें