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योगसार टीका ।
। २२३ सर्व ही अशुभ व शुभभाव मेरे आत्माके शुद्ध स्वभावसे भिन्न हैं। मेरा कोई सम्बन्ध मन, वचन, कायकी क्रियाओंसे नहीं है । मैं बिलकुल से मोदीगा । मैं न वीतरागी व निर्मल हूं । जगतमें मेरे आत्माके न कोई माता-पिता है, न कोई पुत्र है, न मित्र है, न कोई स्त्री है, न भगिनी है, न पुत्री है, न कोई मेरे आत्माका स्वामी है, न कोई सेवक हैं, न मेरा ग्राम है, न धाम हैं, न कोई वस्त्र ई, न आभूषण हैं | __मेरा कोई सम्बन्ध किसी भी पर वस्तुसे रंचमात्र भी नहीं है। मेरेमें सब परका अभाव है, सब परमें मेरा अभाव है, विश्वकी अनन्त सांसारिक मिद्ध आत्माएं अपने मूल स्वभावमें मेरे स्वभावफे बराबर है तथापि मेरी सत्ता निराली, उनकी सत्ता निराली । मेरे ज्ञान, दर्शन, सुख, वीय, सम्यक्त, चारित्र, चेतना आदि गुण निराले, मेरा परिणमन निराला । इन सर्व आत्माओंका परिणमन निराला । मैं अनादिकालसे एकाकी ही रहा व अनंतकाल तक एकाकी ही रहूंगा।
अनादि संसार-भ्रमणमें मेरे साथ अनन्त पुद्रलोका संयोग हुआ परन्तु वे सब मुझसे दूर ही रहे, वे कर्म नोकर्म पुद्गल मेरे किसी भी गुण या स्वभावका सर्वथा अभाव नहीं करसके आवरण कर्मीका होनेपर भी मैं उसी तरह निराबरण रहा । जैसे सूर्यके ऊपर मेघ आनेपर भी सूर्य अपने तेजमें प्रकाशमान रहता है। संसार अवस्थामें मैंने अनेकों माता पिता भाई पुत्र मित्रसे सम्बंध पाए, परंतु वे सब निराले ही रहे, मैं उनसे निराला ही रहा | चारों गतियों में बहुतसे शरीर धार व बहुतसी पर पदार्थोंकी संगति पाई, परन्तु वे मेरे नहीं हुए, में उनका नहीं हुआ | अतएव मुझे यही पक्का श्रद्धान रखना चाहिये कि मैं सदा ही रागादि विकारोंसे शून्य रहा व अब भी हूं व आगामी भी रहूंगा।