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२३६] योगसार टीका। मोह टूट जाता है । यह उसी भवसे मोक्ष होजाता हैं। जो चरम शरीरी नहीं होता है वह क्रम २ में मोक्षको पाता है। जोगी चरम शरीरी नहीं है उसके ध्यानके अभ्यासमे सदा ही सर्व अशुभ कर्म प्रकृतियोका संवर व उनकी निर्जरा होती जाती हैं। तथा प्रतिसमय महान् पुण्यकर्मका आम्रच होता है जिसके फलसे स्वर्गों में जाकर महान् ऋद्विधारी देव होता है। यहाँग मध्यलोकमें आकर चक्रवर्ती आदिकी सम्पदाको बहुत काल भोगकर फिर स्वयं उनको त्यागकर दिगम्बर साधुकी दीक्षा लेता है । वनवृषभनाराच संहननधारी साधु चार प्रकार शुक्लध्यानके द्वारा आठों ही कर्मोका नाश करके अक्षय अमर मोक्षको पालेता है।
परभावका त्याग संसार-त्यागका कारण है।
जे परभाव चपचि मुणि अप्पा अप्प मुणति । केवल-णाण-सरूव लइ (लहि?) ते संसारु मुचति ॥६३।।
अन्वयार्थ--(जे मुणि परभाव चएवि अप्पा अप्प मुणंति) जो मुनिराज परभावोंका त्यागकर आत्माके द्वारा आत्माका अनुभव करते हैं (ते कवल-णाण-सरूव लइ (लहि) संसारु मुचंति) ये केवलज्ञान माहित अपने स्वभावको झलझाकर संसारमे छूट जाते हैं।
भावार्थ त्याग धर्मकी आवश्यकता बताई है। साग, द्वेष, मोह मात्र बंधके कारण हैं। इनको त्यागकर वीतराग भावमें रमण करनेसे संवर व निर्जराका लाभ होता है। राग, द्वेष, मोहके उत्पन्न होने में अन्तरंगका राग मोहनीय कर्मका उदय है, बाहरी कारण मोह व रागद्वेषजनक चेतन व अचेतन पदार्थ हैं। बाहरी त्याग होनेपर अन्तरङ्ग त्याग हो जाता है, जैसे बाहरी धान्यका