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योगसार टीका। वेदन होता है | यह अतीन्द्रिय सुख उसी जातिका है जो सुख अरहंत सिद्ध परमात्माको है। दूसरा फल यह है कि अंतराय कर्मक क्षयोपशम बढ़नेसे आत्मवीर्य बढ़ता है, जिससे हरएक कर्मको करने के लिये अंतरंगमें उत्साह व पुरुषार्थ बढ़ जाता है। तीसरा फल यह है कि पाप कर्मोका अनुभाग कम करता है । पुण्य कर्मोका अनुभाग बनाता है। चौथा फल यह है कि आयु कर्मके सिवाय सर्व कर्मोकी स्थिति कम करता है। यदि केवलज्ञान उपजाने लायक ध्यान नहीं होसका तो मरनेके पीछे मनुष्य देवगनिमें जाकर उत्तम देव होता है | यदि देव हुआ तो मरकर उत्तम मनुष्य होता है । यदि सम्यग्दर्शनका प्रकाश बना रहा हो वह फिर हरएक जन्ममें आत्मानुभव करके अपनी योग्यता बढ़ाता रहता है | शीघ्र ही किसी मानव जन्ममें परम वैरागी होकर परिग्रह-त्यागी होजाता है। साधुपद में धर्मध्यानका आराधन करके आपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर मोहनीय कर्मका क्षय करके फिर अंतर्मुहर्त द्वितीय शुकभ्यानके अलसे शेष तीन घातीय काँका भी क्षय करके अरहंत परमात्मा होजाता है । तब अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख व अनंत वीर्यमे विभूषित हो जाता है, अविनाशी ज्ञान व अविनाशी सुखको झलका देता है। ___ आयुकर्मके अन्तमें शेष चार काँका क्षय करके सिद्ध परमात्मा होजाता है । आत्मानुभवका अन्तिम फल निर्वाण है । जबतक निर्वाणका लाभ न हो तबतक साताकारी पदार्थों का संयोग है । आत्मानुभषका प्रेमी कभी नर्क नहीं जाता है न पशुगति बांधता है । यदि सम्यग्दर्शन के पहले नायु बांधी हो तो सभ्यक्त के साथ • पहले नर्कमें ही जाता है व तिर्यश्चायु बोधी हो तो भोगभूमिमें ही पशु होता है। अनेक ऋद्धि चमत्कार आत्मध्यानीको सिद्ध होजाते हैं।
इसीके प्रतापसे श्रुतकेवली होता है । अवधिज्ञान व मनःपर्यय