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योगसार दीका।
[२३५ ज्ञानको पाता है | सर्व उत्तम संयोगोंका फल देनेवाला आत्माका अनुभव है । आत्मानुभवीका उद्देश्य केवल शुद्धात्माका लाभ ही रहता है। परंतु पुण्यकर्मके बढ़नेस ऋद्धि संपदाएं स्वयं प्राप्त होजाती हैं। जैसे शामफलके से जिरे, म मा पृक्ष बोता है, फल लगनेके पहले वह माली वृक्षके पत्ते, डाली व पुष्पका अनुभव करता है । जैसे राजप्रसादकी ओर जानेवाला सुन्दर मार्गपर चलता है । दूर होनेपर यदि विश्रानि लेनी पड़ती है तो मनोहर उपवनोंमें ठहरता है, सीतल ठण्डा पानी पीता है, पौष्टिक फलोंको खाता है, सुखमें ही राजगृहमें पहुंचता है । वैसे ही मोक्षका अर्थी निर्वाण पहुंचने के लिये आत्मानुभवकी सुखदाई सड़कपर चलता है। जबतक पहुंच नवतक नर व देवके शरीरमें सुखपूर्वक विश्राम करता है | आत्मध्यानका अचिन्त्य फल है।
तत्वानुशासनमें कहा हैध्यानाभ्यासप्रकर्षण तुधन्मोहस्य योगिनः । चरमांगस्य मुक्तिः स्यात्तदः अन्यम्य च क्रमात् ।। २२४ ।। तथा चरमस्य ध्याननन्यस्यतः सदा । निर्जरासंवरश्च स्यान्सकलाशुभकर्मणां ॥ २२५ ॥ आस्रवन्ति च पुण्यानि प्रचुराणि प्रतिक्षणं । महर्द्धिर्भवत्येष त्रिदशः कल्पवासिषु ॥ २२६ ॥ ततोऽवतीर्य मयपि चक्रवादिसंपदः । चिरं भुक्त्वा स्वयं मुक्त्वा दीक्षा देंगंबरी श्रितः ॥२२८|| वनकायः स हि ध्यात्वा शुक्लध्यानं चतुर्विधं । विधूयाष्टापि कर्माणि श्रयते मोक्षमक्षयं ॥ २२९ ॥ भावार्थ-ध्यानके अभ्यासकी उत्तमताले चरम शरीरी योगीका