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योगसार टीका। [२२७ गुण है । तब जीव द्रव्यमें-ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतना, सम्यक्त, चारित्र से मुख्य विशोप गा हैं जो भानाशादि पर द्रव्यों में नहीं पाए जाते हैं । वे सब आकाशादि पांच द्रव्य जड़ अचेतन हैं, आत्मा सचेतन द्रव्य है । मुल स्वभावसे सर्व ही द्रव्य शुद्ध हैं । आकाश जैसे निर्मल है बैंसे यह आत्मा निर्मल है । ज्ञानीको उचित है कि वह अपने आत्माको परम शुद्ध निर्विकार परमानंदमय एकरूप अविनाशी जानकर उसीमें आचरण करे, स्वानुभव प्राप्त करे, यही निर्माणका उपाय है । समयसारकलशमें कहा है
स्यजतु जगदिदानी मोहमाजन्मली । रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।। इह कथमपि नात्मा ऽनात्मना साकर्मकः ।
किल कलयति काले कापि तादात्म्यवृत्तिम् ॥२२-- ॥ भावार्थ हे जगतके प्राणियो ! अब तो अनादिकालसे आए हुए मोहभाव या अज्ञानको छोड़ो और आत्मरसिकोंको रसीले ऐसे प्रकाशमान शुद्ध ज्ञानका स्वाद लो। इस लोकमें कभी भी, किसी तरह भी आस्मा अनात्माके साथ मिलकर एकमेक नहीं होता है। सदा ही आत्मा अपने स्वभावसे परमे जुदा ही रहता है ।
अपने भीतर ही मोक्षमार्ग है। णासम्गि अन्भितरह जे जीवहि असरीरु । चाइडि जम्मि ग संभवहि पिवहिं ण जणणी-खीरु ॥६॥
अन्वयार्थ- जे णासम्गि अभिंतरई असरीरु जीवाई) जो बानी नासिकापर दृष्टि रखकर भीतर शरीरोंसे रहित शुद्ध