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योगसार टीका।
[२३१ भावार्थ-आरमध्यानक साधकको उचित है कि वह अपनेको केवल जड़ शरीर रहित एक ज्ञान शरीरी शुद्ध आत्मा समझे । पुद्रलक परमाणुओंसे रचित शरीरको एक पिंजरा या कारागार समझे । तेजस, कार्मण व औदारिक तीनों शरीरोंसे रहित अपनेको सिद्ध भगवानके समान पुरुषाकार अमूर्तीक समझे । अपना सर्वस्य श्रेय अपने ही आत्मापर जोड़ देवें | सर्व परसे प्रेमको हटा लेवे ।
जगतके पदार्थोका मिथ्या मोह त्याग देवे । जो एसा नःशवंत हैं उनसे मोह करना मिथ्या व संतापकारी है । इस जीवने अनादि संसारके भ्रमणमें अनंत पर्यायें धारण की है। जिस पर्यायमें गया वहां ही इसने शरीरसे, इंद्रियोंसे, इंद्रियों के द्वारा जाननेयोग्य व भोगने योग्य पदार्थोम मोह किया | मरणके समय शरीरके साथ उन सबका वियोग होगया तब मानों उनका संयोग एक स्वप्नका देखता था व मोह करना वृथा या मिथ्या ही रहा ।
सम्यग्दर्शन गुणके प्रकट होनेपर सर्व मिथ्यासका विकार मिट जाता है। जब तक सम्यक्त नहीं होता है यह देहका व देहके सुखका अभिनन्दन करता है, इन्द्रिय विषयभोगका ही लोलुपी होता है । तब पांचों इन्द्रियोंके विषयोंकी तीत्र लालसा रखता है। उनके मिलनेपर हर्ष, न मिलनेपर विषाद करता है, वियोग होनेपर शोक करता है । जैसे२ वे मिलते हैं अधिक तृष्णाकी दाइको बढ़ा लेता है । मिथ्याठीका मोह संसारके सुखोंका होता है वह भोग विलासको ही जीवनका ध्येय मानता है । मानव होनेपर खी, पुत्र, पुत्री, आदि कुटुम्बके मोहमें इतना गृसित हो जाता है कि रात दिन उनके ही राजी रखनेका व अपने विषय पोषनेका उन्हाम करता है, परलोककी चिंता मुला देता है।
आत्मा शरीरसे भिन्न है ऐसा विचार शांत मनसे नहीं कर