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योगसार टीका। आत्माको देखते हैं : वाहाडे जम्मि ण संभवाहि। ये फिर वारवार जन्म नहीं पाएंगे मी खीरू पा विसई) ने 'फिर माताका दृध नहीं पियेंगे।
भावार्थ-आत्मा शरीरोंसे रहित अमूर्तीक है । वह इंद्रिवोंके बारा नहीं जाना जाता, मन भी केवल विचार करसक्ता है ग्रहण नहीं करसक्ता । आत्माका ग्रहण आत्मा ही के द्वारा होता है । इसके 'अणका बाहरी साधन ध्यानका अभ्यास है।
साधकको उचित हैं कि वह एकांत स्थानमें जावं जहां क्षोभ व आकुलता न हो, मानवोंक शब्द नहीं आते हो । उपवन, पर्वत, वन, जिनमंदिर, शून्छ गृह, नदीतट आदि स्थानोंको चुनना चाहिये। भ्यानसिद्धिका समय अत्यन्त प्रातःकाल सूर्योदयके पूर्व है। फिर मध्यालकाल व सायंकाल है, व रात्रिका समय है । ध्यान करनेवाले निश्चित होकर बैंट, शरीर पर चल न हो या जितने कम संभव हो उतने वरून हो।।
शरीरमें रोगादिकी पीड़ा न हो, बहुत भूख न हो, न मात्रामे अधिक भोजन किए हुए हो, शरीरको आसन रूपमें किसी चदाई, पाट, शिला या भूमि पर रखें, पद्मासन, अर्द्धपद्मासन या कायोत्सर्ग आसनसे स्थिर सीधा नाशाप दृष्टि में तिष्ठे, सर्व चिंताओम रहित होकर व सर्व इंद्रियोंसे बुद्धिपूर्वक देखना, सुनना आदि बंद करके केवल इस भावनाको लेकर बैठे कि मुझे भीतर बिराजिन आस्मा रूपी निरंजन देवका दर्शन करना है। ___ जगत के प्राणियोंसे वार्तालापको छोड़े, मनको चितवनमें लगावे। पहले तो व्यवहारनयस अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आसव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ व धर्म इन बारह भावनाओंका श्रद्धा व भावपूर्वक विचार कर जाये फिर सात तत्वोंका