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योगसार टीका |
अपने आत्माको नहीं जानते हैं (जे जीउ गवि मुणंांत ) व जो अपने आत्माका अनुभव नहीं करते हैं (ते संसार णउ मुचंति ) वे संसारसे मुक्त नहीं होते ( जिण णाहहं उत्तिया) ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ।
भावार्थ - श्री जिनेन्द्र भगवानने दिव्य वाणी से यही उपदेश किया है कि अपने आत्माका श्रद्धान, ज्ञान, तथा ध्यान अर्थात् निश्चय रत्नत्रय स्वरूप स्वात्मानुभव ही वह मसाला है जिसके प्रयोग से वीतरागताकी आग भड़कती है, जो कर्म ईंधनको जलाती है।
बिना आत्मीक ध्यानके कोई कभी कमसे मुक्त नहीं हो सक्ता हैं। पर पदार्थ ये मोह बन्धका मार्ग है तब परसे वैराग्य व भिन्न आत्मीक तत्वमें संलग्नता मोक्षका मार्ग है । तत्वज्ञानीको इसीलिये सर्व विषय कपायोंसे पूर्ण वैराग्यवान होना चाहिये । इन्द्रियोंके द्वारा पदार्थोंको जान करके समभाव रखना चाहिये, रागद्वेष नहीं करना चाहिये |
उनके मीतर रागभावसे रंजायमान होना व पभाव से हानि करना उचित नहीं हैं । विषयभोग विपके समान हानिकारक व अन्धकारवर्द्धक हैं ऐसा दृढ़ विश्वास असंयत सम्यक्तीको भी होता है । यद्यपि वह अप्रत्याख्यानादि कपायोंके उदयसे व अपने आत्मवीर्यको कमीस पांचों इन्द्रियोंके भोग करता है तथापि भावना यही रहती हैं कि कब वह समय आवे जब मैं केवल आत्मीक रसका हो वेदन करूं । ज्ञान चेतनारूप ही वर्तु, कर्मफल- चेतना व कर्मचेतनारूप न वर्तृ ।
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त्यागने योग्य बुद्धिसे वह उनमें आसक्त नहीं होता है । जितनीर कपायकी मन्दता होती जाती है, विषय विकारकी कलुषता मिटती जाती है | देशसमी श्रावक होकर विषयभोगसे बहुत निर्लिस हो