________________
--::..
२१४ ]
योगसार टीका ।
पांच लब्धि, क्षयोपशम सम्यक्त, क्षयोपशम चारित्र, देश संयम ये. सब वीस प्रकारके औपशमिक व क्षयोपशमिक भाव मेरे शुद्ध स्वभाबसे जुदे है । में तो एक अखण्ड व अभेद शुद्ध गुणांका घारी द्रव्य हूं | कर्मबन्धकी रचना को लेकर मेरेमें आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्वोंका तथा पुण्य व पापका व्यवहार है ।
मेरा शुद्ध स्वभाव इन पांच तत्व व सात पदार्थोंके व्यवहारसे निराला है। नर नारक देव निर्येच गतिके भीतर कमके उदयवश नानाप्रकार के बननेवाले भेष व उनमें नानाप्रकारकी अशुद्ध कायकी या वचनकी या मनकी संकल्प विकल्परूप क्रियाएं सब मेरे शुद्ध आत्मीक परिणमनसे भिन्न हैं । जगतका सर्व व्यवहार मन वचन काय तीन योगों से या शुभ या अशुभ उपयोगों से चलता है, मेरे शुद्ध उपयोग में a free आत्मीक प्रदेशोंमें इनका कोई संयोग नहीं है इसलिये मैं इन सबसे जुदा हूं । न मेरा कोई मित्र है, न कोई शत्रु है, न मेरा कोई स्वामी है, न मैं किसीका स्वामी हूं, न मैं किसीका सेवक हूं, न कोई मेरा सेवक है, न मैं किसीका ध्यान करता हूं, न किसीका पूजन करता हूं, न किसीको दान देता हूं। मैं ध्यान पूजा दानादि कर्मसे निराला हूँ ।
अशुद्ध निश्चय नयसे कहे जानेवाले रागादि भावोंसे अनुपचरित, असद्भूत व्यवहारसे कहे जानेवाले कार्मणादि शरीरोंके सम्बंध से उपचरित असद्भूत व्यवहारसे कहे जाने वाले स्त्री पुत्रादि चेतन व धन गृहादि अचेतन पदार्थोस मैं भिन्न हूं । सद्भूत व्यव हार नयसे कहे जानेवाले गुण गुणीके भेदोंसे भी मैं दूर हूं । मैं सर्व व्यवहारकी रचनासे निराला एक
परम शुद्ध आत्मा
हूं | ज्ञायक एक प्रकाशमान परम निराकुल परम वीतरागी अखंड द्रव्य हूं, मेरेमें बंध व मोक्षकी भी कल्पना नहीं है। सदा ही तीन
PILLST