________________
|
योगसार टीका ।
[ २१३
1
आत्माका ज्ञान, सुख, वीर्य, चारित्र भिन्न हैं। निश्चयमे सर्व आत्माएं सहश हैं, गुणों में समान है तथापि सत्ता सर्वकी निराली है । सलक अपना अपना है तथा यह मेरा आत्मा सर्व जगतके अणु में स्वरूप पुलोंमें निराला है। पुल मृतक अचेतन है, मैं अमृतक चेतन है । इसी तरह यह सँग आत्मा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश व असंख्यात कालागुअसे भिन्न है, क्योंकि - ये चारों ही द्रव्य अमृतक अचेतन हैं ।
मेरे साथ जिनका अनादिसे सम्बन्ध चला आ रहा है ऐस "तेजस व कार्मण शरीर मेरेसे भिन्न हैं, क्योंकि वे पुगलमय नैजस और कार्मण वर्गेणाओंसे बने हैं। उनका स्वरूप अचेतन है, मेरा स्वरूप चेतन है। मैंने औदारिक व वैकिकि शरीर चारों गतियोंमें वारवार धारण किये हैं व छोड़े हैं। ये भी पुलमय आहारक वर्गणाओं में रचित अचेतन हैं । मेरे भाषाका निकलना भाषा वर्गणाओंके उपादान कारण से होता है व मनका बनना मनोवगणाओंके उपादान कारण से होता है ये सब पुलमय अचेतन हैं। कर्मके उदयसे जो मेरे भीतर क्रोध, मान, मागा, लोभ भाव होते हैं व अज्ञानभाव हैं या वीर्यकी कमी है सो सव आवश्यका दोष है ।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय इन चार वातीय कर्मोके उदयसे मेरेमें विकार झलकता है। जैसे कीचके मिलने से जलमें विकार दीखे | निश्रयसे जैसे कांचसे जल अलग है वैसे में आत्मा सर्व रागादि विकारोंसे अलग परमज्ञानी व परम वीतरागी हूँ | मेरा एक स्वाभाविक भाव जीवन है या शुद्ध सम्यग्दर्शन, शुद्ध चारित्र, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध दर्शन, शुद्ध दान, शुद्ध लाभ, शुद्ध भोग, शुद्ध उपभोग, शुद्ध वीर्य हैं । उपशम सभ्यक्त व उपशम चारित्र, मतिज्ञानादि चार ज्ञान व तीन अज्ञान, चक्षु आदि तीन दर्शन, क्षयोपशम दानादि