________________
.
२१८
योगसार टीका । रमण करता हुआ मोक्षमागको तय करता है व एक दिन परमात्मा होजाता है । वास्तव में यह अनुभव कि मैं बन्ध व मोक्षकी रचनामे रहित स्वयं पदमें वीर्यवान परम निर्मल हूं, स्वयं आत्माको आत्मा-- मय दर्शाता हूं । बंधने विराग ही बंधके क्षयका कारण है। आत्मानुशासनमें कहा है
समधिगतसमन्ताः सर्वेसावद्यदृराः । स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः ।। स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः ।
कथमिह न विमुक्त जनं ते विमुक्ताः ॥ २२६ ॥ भावार्थ-जो सर्व द्रव्योंको जानते हैं, सर्व पापोंसे दुर हैं, आत्माके हितमें चित्तके धारी हैं. पवित्र शानभावके कारक हैं,.. स्त्रपर हितकारी वाणीक कहनेवाले हैं, सर्व संकल्पसे रहित हैं, ऐसे महात्मा विरक्तजन क्यों न मोक्षके पात्र होंगे ?
..
-..-.---
--.
-.
.--...-..-
.:.-
आत्माके ज्ञान के लिये नौ दृष्टांत हैं। स्यण दीउ दिणयर दहिउ दुध्दु धीव पाहाणु ।
सुण्णउ रूउ फलिहउ अगिणि णव दिता जाणु ३५७॥ __ अन्चय मुगम है-अर्थ-रल, दीप, सूर्य, दही-दूध-धी, पापाण, सुवर्ण, चांदी, स्फटिकमणि, आग इन नौ दृष्टांतोंसे जीवको जानना चाहिये ।
भावार्थ-इनका विस्तार जैसा समझमें आया किया जाता है। आत्मतत्व अपने शरीरमें व्यापक है, आप ही है, प्रगट ही है। तथापि समझनेके लिये नौ दृष्टांतोंका यहां कथन है
.
. .