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योगसार टीका |
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( अप्पा हु वि सुगंति ) इसलिये निश्रय से आत्माको नहीं मानते है (तहि कारण ए जीव णिव्याणु ण हू लहंति फुडु ) यही कारण है जिससे ये जीव निर्वाणको नहीं पाते, यह बात स्पष्ट है । भावार्थ — सकल संसार, शरीरमें प्राप्त इंद्रियोंके विषयोंके तथा -भूख प्यास रोगके शमनके आधीन होकर दिनरात वर्तन किया करता है | अपने शरीरकी रक्षा के धंधे में सब मगन होरहे हैं । एकेन्द्रियसे चार इन्द्रिय प्राणी तक मनरहित होते हैं तो भी दिनरात आहारको स्वोजमें रहते हैं, दूसरोंसे भयभीत रहते हैं. मैथुनभाव में वर्तते हैं, परिषद् या मूर्छा अपने शरीर रहती है । चार संज्ञाएं, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, सर्व प्राणियों पाई जाती हैं ।
मनरहित पंचेन्द्रियके हित अहितके विचार करनेकी शक्ति नहीं है। इन्द्रियोंणाके मेरे हुए वे निरन्तर वर्तते रहते हैं । मन सहित पंचेन्द्रियोंके भीतर आत्मा व अनात्माक विवेक होनेकी शक्ति हैं परंतु ये सैनी प्राणी भी सांसारिक धन्धमें इतने फंसे रहते हैं कि मैं कौन हूं, मेरा क्या कर्तव्य है. इस प्रभार ध्यान ही नहीं देते हैं ।
नारकी जीवोंका यही धन्धा है कि मार खाना व दूसरोंको मारना । वे परस्पर पीड़ा देने में ही लगे रहते हैं | देवगतिवाले रागभावमें ऐसे फंसे रहते हैं कि उन्हें नाच गाना बजाना, देवी के साथ रमण, इन रागवर्द्धक कन्या कसे रहने के कारण विचारका अवकाश नहीं मिलता है। पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यच भी असैनीकी समान चार संज्ञाओंके भीतर को रहते हैं। पेटकी ज्याला शांत करनेका उद्यम किया करते हैं। मनुष्यों की दशा प्रत्यक्ष प्रगट है। वे असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प या विद्याकर्म, सेवाकर्म, पशुपालन आदि अनेक धन्धोंमें लगकर अपने व अपने कुटुम्बके लिये पैसा कमाते हैं । - भोजनपानका प्रबन्ध करते हैं। खीके साथ रमण करके सन्तानों को