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योगसार टीका ।
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भावार्थ - हे सुपार्श्वनाथस्वामी ! आपने यह हितकारी शिक्षा दी है कि यह शरीर जीवका चलाया चलता है, जैसे एक विर यंत्र किसी मानव के द्वारा चलानेमे चलता है। यह घृणाका स्थान भयप्रद है, अशुचि है, नाशवन्त है, दुःखोंके तापको देनेवाला है । इस शरीर से स्नेह करना निरर्थक हैं, स्वयं आपत्तियोंका सामना करना है | आत्मानुशासन में कहा है
अस्थिस्थूलतुलाकलापघटितं न शिरास्नायुभि-श्रर्माच्छादितमस्त्रसान्द्रपिशितैर्लितं सुगुप्तं खलैः । कर्मारातिभिरायुरुच्चनिगलालनं शरीरालयं
कारागारमहि ते हृतमते प्रीतिं वृथा मा कृथाः ॥ ५९ ।।
भावार्थ हे मूर्ख ! यह तेरा शरीररूपी घर दुष्ट कर्म-शत्रुओंसे बनाया हुआ एक कैदखाना है, इन्द्रियोंके मोटे पिंजरोंसे घड़ा गया है, नसके जालसे वेढ़ा है, रुधिर व मांससे लिप्त है, चर्मसे ढका हुआ गुप्त है, आयुकर्मकी बेड़ीसे तु जकड़ा पड़ा है। ऐसे शरीरको कारागार जान वृथा ही प्रीति करके पराधीनता के कष्ट न उठा- इससे निकलनेका यत्न कर |
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जगतके धंधों में उलझा प्राणी आत्माको नहीं पहचानता ।
वइ पडियउ सयल जगि पनि अप्पा हु मुणंति । तर्हि कारण ए जीव फुड ण हु णिव्वाणु लर्हति ॥ ५२ ॥
अन्वयार्थ - (सयल जारी धंधइ पार्डयड ) सब जयके प्राणी अपने अपने धन्धोंमें, कार व्यवहारमें फंसे हुए हैं, तल्लीन हैं