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यांगसार टीका ।
पर भी दिन पर दिन बढ़ता जाता है। बहुतसे प्राणियों के पापके उदयसे इच्छित भोगोंका लाभ नहीं होता है। इससे तृष्णा कभी नहीं मिटती । जिनको पुण्य के उद्यमे इच्छित भोगोंका लाभ व भोग हो जाता है उनके भीतर कुछ देर सन्तोष मालूम होता है। शीघ्र ही चाहकी मात्रा और अधिक हो जाती है ।
चक्रवर्ती समान संपदाधारी मानव भी नित्य इच्छित भोग भोगते हुए भी कभी सन्तोषी व छप्त नहीं होता है। जैसे २ शरीर पुराना पढ़ता जाता है वैसे वैसे तुष्णा बढ़ती जाती है । संसारका मोह सदा बना रहता है। परलोकमें सुन्दर भोग मिलें, स्वर्गमें जाऊँ, मनोज्ञ देवियोंके साथ कल्लोल करूँ ऐसी तृष्णाको धरके मोही मानव दान, पूजा, जप, तप, साधुका या श्रावकका चारित्र पाळता है । मिध्यात्यके विषको न त्यागता हुआ संसारका प्रेमी जीव मरकर पुण्यके उदयसे देव, मानव पापके उदयसे तिर्येच या नारकी होजाता है। वहां फिर तृष्णाका मेरा हुआ राग, द्वेष, मोह, करता है। आयु पूरी कर नवीन आयु बांधी थी, उसके अनुसार फिर दूसरी गतिको चला जाता है |
इस तरह अज्ञान व तृष्णा के कारण यह अनादिसे चार गतिरूप संसार में भ्रमण करता आया है व जबतक आत्महितको नहीं पहचानेगा, जबतक सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं करेगा, तबतक भ्रमण हो करता रहेगा। इसलिये बुद्धिमान मानवको अपने आत्माके ऊपर करुणाभाव लाकर उसको जन्म, जरा, मरणादि दुःखोंसे बचाने के लिये धर्मका शरण धारण करना चाहिये। धर्म ही उद्धार करनेवाला हैं, परम सुखको देनेवाला है। स्वयंभूस्तोत्र में कहा है - तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव ।