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योगसार टीका ।
वराभावका मनन करते रहना चाहिये तत्र उदय मन्द होता जायगा, रागद्वेषकी कालिमा घट ही जायगी। इसतरह ज्ञानीको उचित है कि जिसतरह हो वीतराग होनेका व समभाव पानेका उपाय करना चाहिये | तत्वसारमें देवसेनाचार्य कहते हैंरायादिया विभावा बहिरंतरदुह वियप्प मुत्तणं ।
एयम्पमणो ज्ञायहि णिरजणं निययअप्पाणं ॥ १८ ॥ भावार्थ - रागादिक विभावोंको व बाहरी व भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पको त्यागकर एकाग्र मन हो, सर्व कर्ममल रहित निरयन अपने ही आत्माको ध्यावे |
आत्मानुशासनमें कहा है-
मुहुः सा सज्ज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥ १७७ ॥ मोहबीजातिद्वेषौ बीजानू मूलाङ्कुराविव ।
तस्माज् ज्ञानाग्निना दाखं तदेतौ निर्दिभिक्षुणा ॥ १८२ ॥
भावार्थ- सम्यग्ज्ञानका वारवार विचार कर, पदार्थोंको जैसे ये हैं वैसा ही उनको देखकर प्रीति व अप्रीति मिटाकर आत्मज्ञानी मुनि आत्माको ध्यावै। जैसे बीजसे मूल व अंकुर होते हैं वैसे मोहके बीजने रागद्वेष होते हैं । इसलिये जो रागद्वेषको जलाना चाहे उसे ज्ञानकी अमिसे इस मोहको जलाना चाहिये |
आशा तृष्णा ही संसार - भ्रमणका कारण है । आउ गलइ गवि मणु गलइ गवि आसा हु गलेइ । मोहु फुरइ पनि अप्प - हिउ इम संसार भमेह || ४९ ॥ अन्वयार्थ - ( आउ गलड़ ) आयु गलती जाती है (मणु