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योगसार टीका। णवि गलइ ) परन्तु मन नहीं गलता है ( आसा णवि गलेइ)
और न आशा तृष्णा ही गलती है ( मोहु फुरद ) मोहभाव फैलता रहता है । अप्प-हिउ णवि ! फिन्तु अपने आस्माका हित करनेका भाव नहीं होता है ( इम संसार भमेइ ) इसतरह यह जीव संसारमें भ्रमण किया करता है।
भावार्थ यहाँ आचार्यने संसार-भ्रमणका कारण बताया है । यह मानव शरीर आयुकर्मके आधीन रहता है । जबसे यह जीव इस मनुष्य गतिमें आता है तबसे पूर्व बांधा मनुष्य आयुकर्म समय समय माइता जाता है । सो जब सत्र झड़ जाता है तब जीवको -मानव देह छोड़ना पड़ता है।
चारों गतियों में मानव गति बहुत उपयोगी है क्योंकि निर्वाणके योग्य संयम, तप, ध्यानादि इसी मानवगतिसे ही होसरहे हैं तो भी अज्ञानी मोही जीव आत्माका भला नहीं करता है ! यह प्राणी रातदिन शरीरके मोहमें फंसा रहता है । सांसारिक सुखकी चिंतामें मन विचार करता रहता है | मैंने ऐसे २ भोग भोगे धे, ऐसा भोग भोग रहा हूं, ऐसे भोग भोगने हैं, इन्द्रियोंके विपयोंको इकट्ठा करनेकी, रक्षा करनेकी चिता मनमें सदा रहती है । इष्ट विपयोंके 'वियोगमे शोक होता है। जो स्त्री, पुत्र, मित्र, विषयों के भोग हैं, सहायक हैं उनके बने रहनेकी व अपनी आझामें चलानेकी भावना भाता है। जो कोई विपयोंके भोगके बाधक हैं उनके बिगाडनेकी मनमें चिंता रहती है। रात दिन मन इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, पीडा, निदानजनित आत भ्यानमें या हिंसानन्दी, मृषानन्दी, 'चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी रौद्रध्यानमें मगन रहता है।
__ मनको थिर करके मोही मलीन विचार नहीं करता है कि मेरा सच्चा हित क्या है । आशा तृष्णाका रोग विषयोंके भोग करते रहने