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योगसार टीका ।
स्थापना है । जैसे चित्रपटमें किसी लकीरको नदी, किसी बिन्दुको पर्वत, किसी घेरेको नगर आदि मान ली है। स्थापना केवल की है । कोई मूढ़ स्थापनाको साक्षात् मानकर नदीकी स्थापनारूप लकी - रसे पानी लेना चाहे तो पानी नहीं मिलेगा। क्योंकि लकीर में साक्षात् नदी नहीं है ।
कोई साधुकी मूर्तिको देखकर प्रश्न करना चाहे तो उत्तर नहीं. मिल सकता। क्योंकि वहां साक्षात् साधु नहीं है, साधुका आकारप्रदर्शक चित्र है। तात्पर्य यह है कि मंदिर व तीर्थ में साक्षात् परमात्माका दर्शन नहीं होगा । परमात्मा जिनदेवका दर्शन तो अपने ही आत्माको आत्मारूप यथार्थ देखने से होगा ।
परमात्मप्रकाश में भी कहा है
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देहा देउलि जो बस, देव अणाइ अतु ।
केवलणा फुरंत तणु सो परमप्पु भणेतु ॥ ३३ ॥
भावार्थ - देहरूपी देवालय में जो अनादिसे अनंतकाल रहनेवाला केवलज्ञानमई प्रकाशमान शरीरधारी अपना आत्मा है वही निःसंदेह परमात्मा है ।
अणुजि तित्थ में जाहि जिय, अण्णुजि गुरउ म सेवि । अणुजि देव म चिंत तुहुं अप्पा विमल मुवि ॥ ९५ ॥
भावार्थ - और तीर्थ में मत जा, और गुरुकी सेवा न कर अन्य देवकी चिंता न कर, एक अपने निर्मल आत्माका ही अनुभव कर, यही तीर्थ है, यही गुरु है, यही देव है, अन्य तीर्थ, गुरु व देव केवल व्यवहार निमित्त है ।
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