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योगसार टीका । [१८३ ज्ञानी ही शरीर मंदिर में परमात्माको देखता है।
तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु बि कोइ भणेइ । देहा-देडाले जो भुणइ सो बुहु को वि हवेइ ।। ४५ ॥
अन्वयार्थ- ( सव्यु वि कोइ भणेइ ) सब कोई कहते हैं (तित्यइ देडलि देउ जिणु ) कि नीर्थमें या मंदिरमें जिनदेव है (जो देहा-देउलि मुणइ ) जो कोई देहरूपी मन्दिरमें जिनदेवको देखता है या मानता है (सो का वि बह हवेई) सो कोई ज्ञानी ही होता है।
भावार्थ-जगतमें व्यवहारको ही सत्य माननेवाले बहुत है। सब कोई यही कहते हैं कि घड़ेको कुम्हारने बनाया । घड़ा मिट्टीका बना है, ऐसा कोई नहीं कहता है। असल में बड़ेमें मिट्टीकी ही शकल है, मिट्टीका डेला ही घड़के रूपमें बदला है। कुमारके योग व उपयोग मात्र निमित्त हैं। इसी तरह तीर्थ स्वरूप जिन प्रतिमाएं केवल निमित्त हैं, उनके द्वारा अपने शुद्ध आत्माक सदश परमात्मा अरहंत या सिद्धका स्मरण हो जाता है । वास्तवमें वे क्षेत्र व प्रतिमा व मन्दिर सब अचेतन जड़ हैं । तौभी चेतनके स्मरण करानेके लिये प्रबल निमित्त हैं, इसीलिये उनकी भक्ति के द्वारा परमात्माकी भक्ति की जाती है। मिथ्यादृष्टी अज्ञानी विचार नहीं करता है कि असली बात क्या है । वह मंदिर व मूर्तिको ही देव मानके पूजता है। इससे आगे विचार नहीं करता है कि प्रतिमा तो अरहन्न व सिद्धपदके ध्यानमय भावका चित्र है । उस भावकी स्थापना है। साक्षात् देव यह नहीं है।
तथा भक्ति करते हुए भी वह भक्त उन्हींके गुणानुवाद करता है जिनकी वह मूर्ति है । वह कभी भी पाषाणकी या धातुकी प्रशंसा