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योगसार टीका ।
[ १८९ भावार्थ- मैं उस धर्मरसायणको बताऊँगा जिसके पीनेमे ज्ञानी जीवोंके मनमें आनन्द होगा व जन्म, जग, मरणके दुःखोंका क्षय होगा व इस लोक और परलोकमें दोनोंमें हित होगा । यह जबतक जीवंगा परमानन्द भोगेगा, परलोकमें शीघ्र ही सिद्ध होकर सदा सुखी रहेगा।
बाहरी क्रियामें धर्म नहीं है ।
धम्मु य ि होइ थम्मु ण पोत्था पिच्छियइँ | धम्मु या मयि पसि धम्मु ण मत्था लुचियाँ ॥ ४७ ॥ अन्वयार्थ - (पढियई धम्मु ण होइ ) शास्त्रों के पढ़ने मात्र धर्म नहीं होगा (पत्यापछि बम् पुस्तक व पीळी रखने मात्र से धर्म नहीं होता ( महिय-यएस धम्मु ण) किसी मठमें रहने में धर्म नहीं होता ( मत्था-लुचिय धम्मु ण) केशलोंच करने से भी धर्म नहीं होता ।
भावार्थ - जिस धर्मसे जन्म, जश, मरणके दुःख मिटे, कर्मोंका क्षय हो यह जीव स्वाभाविक दशाको पाकर अजर-अमर होजावे वह धर्म आत्माका निज स्वभाव है। जो सर्व परपदार्थोंसे वैराग्यबान होकर अपने आत्माकं शुद्ध स्वभावकी श्रद्धा व उसका ज्ञान रखकर उसके ध्यान में एकाय होगा वहीं निश्वय रत्नत्रयमई धर्मको या स्वानुभवको या शुद्धोपयोगकी भूमिकाको प्राप्त करेगा ।
जो कोई उस तत्वको ठीक ठीक न समझ करके बाहरी क्रिया मात्र व्यवहारको ही करें व माने कि में धर्मका साधन कर रहा हूं उसको समझानेके लिये यहां कहा है कि ग्रंथोंके पढ़नेसे ही धर्म न होगा। मंथोंका पठन पाठन इसीलिये उपयोगी है कि जगतके पड़ा