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योगसार टीका। जाता है । फिर भी यदि वह दीन वृत्ति करे तो हास्यका स्थान है। इसी तरह जिसने आत्मा देवको शरीरफ भीतर पा लिया उसको फिर बाहरी क्रिया में मोह नहीं हो सकता । कारणवश अशुभसे बचनेके लिये बाहरी क्रिया करता है तो भी उसे निर्वाण मार्ग नहीं मानता। निर्माण मार्ग तो आत्माके दर्शनको ही मानता है ।
समयसारमें कहा हैपरमबाहिरा जे ते अणणाणेण पुणमिच्छति । संसारमनामहेदं विनोमवहेतुं अयागंता ॥ १६१ ॥
भावार्थ--जो परमार्थसे बाहर हैं, निश्चयधर्मको नहीं समझते व मोक्षके मार्गको नहीं जानते हुए अन्ना से संपार-भमाण पत्र पुण्यको ही चाहने हैं, पुण्यकर्म बंधकारक क्रियाको निर्वाणका कारण मान लेता है । समयसार कलशमें कहा है--
लिवक्ता स्वयमेव दुष्करतरैक्षिोन्मुखः कर्मभिः किग्रन्ती च परे महावृततपोमारेल भन्नाश्चिरं । साक्षान्मोक्ष इन्दं निरामयपदं संवद्यमान स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुगं चिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्त न हि ॥१०-७॥
भावार्थ---कोई बहुत कठिन मोक्षमार्गमे विरुद्ध असत्य व्यकहाररूप क्रियाओंको करके कष्ट भोगो तो भोगो अथषा कोई चिक्राल जैनोंके महानत व तपके भारसे पीड़ित होते हुए कष्ट भोगो तो भोगो, परन्तु मोक्ष नहीं होगा । क्योंकि मोक्ष एक निराकुल पद है, ज्ञानमय है, स्वयं अनुभवगोचर है, ऐसा मोक्ष विना आत्मज्ञानके और किसी भी तरह प्राप्त नहीं किया जामता ।