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योगसार टीका |
समभावरूप वित्तसे अपने देहनें जिनदेवको देख |
सूठा देव देउ विधावि सिलि लिप्यह चित्ति । देहा देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समिचित्ति ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थ -- ( मूढा ) हे भूर्ख 1 (देउ देवलि णवि ) देव किसी मन्दिर नहीं है (सिलि लिप्पर चित्ति णावे ) न देव किसी पाषाण व या चित्रमें है ( जिणु देउ देहा-देवलि) जिनेन्द्रदेव परमात्मा शरीररूपी देवालय में हैं ( समाचारी सो बुज्झहि) उस देवको समभाव से पहचान या उसका साक्षात्कार कर। भावार्थ-यहां फिर भी किया है कि परमात्मा देव ईट च पाषाणके बने हुए मंदिर में नहीं मिलेंगे, न परमात्माका दर्शन किसी पापा की या मिट्टीकी मुर्ति में होगा न किसी चित्रमें होगा | अपना आत्मा हो स्वभाव से परमात्मा जिनदेव है । उसका दर्शन यह ज्ञानी प्रायः अपने भीतर कर सक्ता है। यदि यह रागक्षेपको छोड़ दे. शुभ या अशुभ राग त्याग दे वीतरागी होकर अपनेको आठ कर्म रहित, शरीर रहित, रागादि विकार रहित देखे !
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मंदिरांका निर्माण निराकुल स्थानमें इसलिये किया जाता है कि गृहस्थी या अभ्यासी माधु वहां बैठकर सांसारिक निमित्तों बचें, चित्तको दुरी वासनाओंसे रोक सकें व मंदिरमें निराकुल हो आत्माका ही दर्शन सामायिक द्वारा, धान्यात्मिक शास्त्र पठन या मनन द्वारा, ध्यानमय मूर्ति दर्शन द्वारा किया जासके। इसी तरह पाषाण या धातुकी प्रतिमाका निर्माण ध्यानमय व वैराग्यपण भावका स्मरण कराने के लिये किया जाता है। आत्माका दर्शक अपना शरीर है।
शरीर में आत्मदेव विराजमान है जिसको इस बातका पक्का