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योगसार टीका ।
पड़ता है। वस्तुओंका यथार्थ स्वरूप जानता है । वह जिनमंदिर में जिन प्रतिमाका दर्शन, पूजन अपने आत्मीक गुणों पर लक्ष्य जानेके लिये व अपने भीतर आत्मदर्शन करनेके लिये ही करता है । वह जानता है कि मूर्ति जड़ है, केवल स्थापना रूप है। ध्यानका चित्र है उसमें साक्षात् जिनेन्द्र नहीं हैं। जो भूतकाल में तीर्थकर या अन्य अरहंत होगए हैं वे अब सिद्धक्षेत्र में हैं । वर्तमान में इस भरतक्षेत्र में इस पंचमकालमें नहीं है । यदि होते भी व समवशरण या गंधकुटीमें उनका दर्शन होता भी जो आंखोंसे तो केवल उनका शरीर ही दिखता, आत्मा नहीं दिखता। उनका आत्मा कैसा है इस बातके जाननेके लिये तब भी अपने शरीर में ही विराजित अपने आत्मा देवको ध्यानमें लाना पड़ता । वास्तवमें जो अपने आत्मा के स्वभावको पहचानता है वही जिनेश्वरकी आत्माको पहचानता है ।
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अपने आत्माका आराधन ही उनका सजा आराधन है । जो अपने आत्माको नहीं समझते व बाहर आत्मा देवको ढूंढते हैं उनके लिये हास्यका भाव संथकारने बताया है व यह मुर्खता प्रगढ़ की है कि बनका स्वामी होकर भी कोई भीख मांगता फिरे ।
एक मानव बहुत लोमी था, धनको गाड़ कर रखता था, धाहरसे दीन दिखता था अपने पुत्रको भी धनका पता नहीं बताया । केवल उसका एक पुराना मित्र ही इस भेदको आनता था कि इसने प्रचुर धन अमुक स्थानमें रक्खा है। कुछ काल पीछे यह मर जाता है । पुत्र अपनेको निर्धन समझकर दीनहीन वृत्ति करके पेट भरता है । एक दिन पुराने मित्रने बता दिया कि क्यों
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दुःखी होते हो ? तेरे पास अटूट धन है। वह अमुक स्थानमें गड़ा है। सुनकर प्रसन्न होता है । उस स्थान पर खोदकर धनका स्वामी हो