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यागसार दीका । [१७१ अनात्मज्ञानी कुतीर्थों में भ्रमता है । ताम कुतित्थिई परिभमइ धुतिम ताम करेंड्। गुरुहु पसाए जाण गवि शाणा- प्नुणे : ५१ ।।
अन्वयार्थ-(गुरुह पसाएं जाम अप्यादे णवि मुणे.) गुरु महाराज प्रसादसे जन एक अपने आत्मारूपी देवको नहीं पहचानता है (ताम कुतिथिइ परिभमइ) नबतक मिथ्या तीर्थोंमें घूमता है (नाम धुत्तिम करेइ) तब ही नक धूर्तता करता है।
भावार्य-जबतक यह जीव अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टी है, संसारासक्त है तबतक इसकी इ इन्द्रियों की प्राप्तिकी कामना रहती है व बाधक कारणोंक मिटानेकी लालसा रहती हैं । मिथ्यामागके उपदेशकोंक द्वारा जिस किसीकी भक्ति व पूजाले व जहाँ कहीं जानेसे विषयोंके लाभमें मदद होनी जानता है उसकी भक्ति व पुजा करता है व उन स्थानोंमें जाता है ! मिथ्या देवोंकी, मिण्या गुरुओंकी मिथ्या धर्माकी, मिथ्या तीर्थोकी खूब भक्ति करता है। नदी व सागरमें स्नानसे पाप नाश कर इष्टलाभ मान लेता है । स्त्रेल तमाशोंमें विषय पोखते हुए धर्म मान लेता है । तीन प्रकारकी मुदतामें फंसा रहता है, जैसा श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है
आफ्गासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽमिपातब्ध लोकमूदं निगद्यते ॥ २२ ॥
भावार्थ-नदी व सागरमें स्नान करनेसे, वाटू व पत्थरोंके. ढेर लगानेसे, पर्वतसे गिरनेसे, आगमें जलकर मरनेसे भला होगा मानना, पाप क्षय, पुण्य लाभ या मुक्ति मानना लोकमूढ़ता है।
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः। देवता यदुपासीत देवतामूहमुच्यते ॥ २३ ॥