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योगसार टीका |
आत्माका स्वभाव नहीं । आत्मा द्रव्यको मात्र द्रव्यरूप अखण्ड सिद्ध भगवान के समान शुद्ध देखना चाहिये । व ऐसा ही अनुभव करना चाहिये । परम मुनि ही शुद्धात्माके ध्यानसे शीघ्र ही भवसागर से पार होजाते हैं ।
मोक्षके कारणकलाप में वृषभनाराच संहननका होना जरूरी है । विना इसके ऐसा वीर्य नहीं प्रगट होता कि क्षपकश्रेणीपर चढ़ सके व घातीयकका क्षय करके केवलज्ञानी होसके । परित्रहत्यागी निर्भय -मुनि ही मोक्षके योग्य ध्यान करसते हैं। इसलिये २४प्रकारके परिग्रहका होना निषेधा है। क्षेत्र, घर, धन, धान्य, चांदी, सुवर्ण, दासी, दास, कपडे, वर्तन ये दश प्रकार बाहरी परिग्रह हैं। ये बिलकुल पर हैं इनको त्यागा जासक्ता है, तब बाहरी परिग्रहकी चिंता मनको नहीं सताएगी | अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार है । मिध्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, वेद, नपुंसक वेद । इनकी ममता बुद्धिपूर्वक छोड़ी जाती है ।
कर्मोदयसे यदि कोई विकार होता है तो उसको ग्रहण योग्य मानके ज्ञानी साधु स्वागत नहीं करते हैं, यही परिमका त्याग है । · बालकके समान नन रहकर जो साधु अप्रमत्त गुणस्थानके सातिशय भावको प्राप्त होकर व क्षायिक सम्यक्तसे विभूषित होकर क्षपकश्रेणी चढ़कर शुक्लस्यान ध्याते हैं वे ही उसी भवसे निर्वाण लाभ कर लेते हैं | बाहरी चारित्र निमित्त है, शुद्ध अनुभव रूप परम सामायिक या ययाख्यातचारित्र उपादान कारण है । निमित्त होनेपर · उपादान उन्नति करता है। परंतु साधककी दृष्टि अपने ही उपादान-रूप आत्मीक भाव ही पर रहती है । तात्पर्य यह है कि व्यवहार सम्यक्चके कारणों में भी एक सारभूत अपने ही शुद्धात्माका ग्रहण - कार्यकारी है। समयसारकलशा में कहा है -
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