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योगसार टीका |
न मुह्यति संशेतं न स्वार्थानध्यवस्यति ।
न रज्यते न च द्वेष्टि किंतु स्वस्थः प्रतिक्षणं ॥ २३७॥
भावार्थ - सर्व जीवोंका स्वभाव आत्माका व परपदार्थोंका सूर्यमण्डल की तरह बिना दूसरे की सहायतासे प्रकाश करता है। हरएक आत्मा स्वभावसे संशयवान नहीं होता है, अनभ्यवसाय या ज्ञानके आलस्य भावको नहीं रखता है न मोह या विपरीत भात्रको रखता है, संशय विमोह अनभ्यवसाय रहित हैं, न तो राग करता हैं न द्वेष करता है। किंतु प्रति समय अपने ही भीतर मगन रहता है ।
ज्ञानीको हरजगह आत्मा ही दिखता है । को सुसमाहि कर को अंचर, छोपु- अछोपु करिवि को बंचउ । हल सहि कलहु केण समाणउ, जहि कहि जोवर तर्हि अप्पाणउ ॥४०
अन्वयार्थ - ( को सुसमाहि करउ ) कौन तो समाधि करे ( को अंचड ) कौन अर्चा या पूजन करें ( छोपु- अछोपु करित्रि ) कौन स्पर्श अस्पर्श करके ( को चंचल) कौन वंचना या मायाचार करें (केण सहि हल कलहु समाउ ) कौन किसके साथ मैत्री व कलह करे (जहि कहि जोवर तहि अप्पाणड ) जहां कहीं देखो वहाँ आत्मा ही आत्मा दृष्टिगोचर होता है ।
भावार्थ- इस चौपाई में बताया है कि निश्चयनयसे ज्ञानी " जब देखता है तब उसे अपना आत्मा परम शुद्ध दीखता है, वैसे ही विश्वभर में भरे सूक्ष्म व बादर शरीरधारी आत्माएं भी सब परम शुद्ध दीखती हैं। इस दृष्टिमें नर नारक देव पशुके नाना प्रकारके भेद नहीं दिखते हैं, एक आत्मा ही आत्मा दिखता है। ऐसा उस ज्ञानीके